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________________ ३३८ . अनेकान्त [ वर्षे ६ देना चाहते है। इसका प्रामास भी हमें जैन प्रों में देखने सामान्य और विशेषधर्म चाली' म.न गया है। सामान्य को मिलता है जैसा कि आगे प्रगट किया जायगा । धर्मको वस्तुका द्रव्यांश और विशेषधर्मको वस्तुका पर्या यांश भी कहते हैं। एक ही वस्तुमें भिन्न भिख समयके अंदर (६) नयोंका सैद्धान्तिक वर्ग हमें जो विषमता दिखाई देती है उसके रहते हुए भी वस्तु वस्तु-स्वरूप-निर्णयके बारेमें प्रमाया-मान्यताको सभी के विषय में हमारा एकत्व ज्ञान अक्षुण्ण बना रहता है। इस दर्शनों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है लेकिन जैनदर्शनमें का कारण उस वस्तु में रहनेवाला सामान्यधर्म अर्थात् प्रमाण-मान्यताके साथ साथ नय-मान्यताको भी उतना ही द्रव्यांश समझना चाहिये और भिन्न भिन्न समयमें दीखने वाली उपयोगी बतखाया है। उस विषमताका कारण उस वस्तुमें रहने वाला विशेषधर्म अर्थात् पर्यायांश समझना चाहिये । इसी तरह अनेक प्रतीतिके प्राचारपर बस्तुस्वरूप-निर्णयका सिद्धान्त वस्तुओंमें एक ही समयके अंदर हमें जो समानता और लोकमान्य है। लोकमें वस्तु यदि अनेक-धर्मात्मक या विषमनाका अनुभव होता है इसमें भी जन वस्तुओं में रहने अनेक-अंशात्मक प्रतीत होती है तो लोक उसे वैसी ही वाले सामान्यधर्म और विशेषधर्मको ही कारण समझना स्वीकार करता है। जैसे एक पका हुमा पाम सामने भासा चाहिये। जैसे एक मनुष्य भिन्न भिन्न समय में होने वाली है। लोग उसका ज्ञान भाँखसे देखकर, हाथसे कर, नाक बाल, युवा और वृद्ध अवस्थानोंमें भी मनुष्य ही रहता है संधकर और जीभसे चखकर किया करते हैं। भिन्न भिक और अनेक मनुष्य एक ही समयमें परस्पर भिन्न दिखाई टियोद्वारा भित्र मिल प्रकारसे होने वाले इन चारोंज्ञानोंमें देते हए भी समान रूपसे मनुष्य ही कहे जाते हैं । इसलिये से कौनसा ज्ञान सही और कौनसे तीन ज्ञान गलत माने इस प्रकारके सही अनुभवोंके आधारपर यही मानना पड़ता जावें इसका नियाय करना असंभव है। इसलिये इन चारों है कि उस एक मनुष्य में भिक भिन्न समयके अंदर भेदसूचक ही ज्ञानोंको पालत मानना भी ठीक नहीं है, कारण कि एक बाल, युवा और वृन्द्र अवस्थारूप विशेषधर्म और इन सब तो इन चारों ही शानोंको ग़लत माननेका कोई भी निमित्त अवस्थानों में भी एकतासूचक मनुष्यस्वरूप सामान्यधर्म वहांपर मौजूद नहीं रहता है। दूसरे ऐसा मान लेनेपर उस मौजूद है तथा अनेक मनुष्यों में भी इसी तरह एक ही मामके स्वरूपका निर्णय भी नहीं किया जा सकता है। इस समय में पार्थक्यसूचक विशेषधर्म और समानतासूचक लिये इन सभी ज्ञानोंको खोकमें सही कबूल किया गया है सामान्यधर्म मौजूद है। और चकि ये सभी ज्ञान एक दूसरे ज्ञानसे बिल्कुल भिड मालूम पड़ते हैं इसलिये इनके निमित्तभूत चार धर्म रूप, वस्तुका सामान्यधर्म भिन्न भिन्न समयों में भी उस वस्तु स्पर्श गंध और रस-उस माममें स्वीकार कर लिये जाते में मौजूद रहनेके कारण नित्य माना गया है और उसका है। लोकमें यही प्रक्रिया दूसरी सभी वस्तुओं के बारेमें विशेषधर्म बदलते रहनेके कारण प्रनित्य कबूल किया अपनायी गयी है। इस प्रकार वस्तुकी अनेक धर्मात्मकता गया है। यही सबब है कि जैनधर्ममें वस्तुको नित्यानित्यात्मक यपि बोकमें भी स्वीकार की गयी है, परन्तु जैनदर्शनमें अथवा धौम्य-व्यय-उत्पादात्मक कहा है। यहाँपर नित्यता अनेक-धर्मात्मकताकी इस मान्यताको इतना व्यापक रूप काही अर्थ धौम्य और अनित्यताका ही अर्थ व्यय और दिया गया है कि यदि परस्पर विरोधी धर्म भी वस्तुमें उत्पाद समझना चाहिये। वस्तुके व्ययका अर्थ होता है प्रतीत होते हैं तो उस वस्तुमें उन विरोधी धर्मों के समाव उस वस्तुकी पूर्वपर्यायका नाश और वस्तु उत्पादका अर्थ को भी वह स्वीकार करता है। जैनदर्शन में दसरे वर्शनोंकी होता है उस वस्तुकी उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति । लेकिन वस्त अपेक्षा यही विशेषता है और दर्शनकी इस विशेषता की पूर्वपर्यायका नाश और उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति ये दोनों कारण जैनधर्मकोहीलोकमें भनेकान्तवादी धर्म कहा गया। एक ही कालमै होजाया करती हैं। इसखिये जैनधर्ममें व्यय जैनधर्मके तत्वज्ञानमें प्रतीतिके आधारपर बस्तुको १सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः।-परीक्षामुख ४-१
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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