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________________ नयोंका विश्लेषण (लेखक ..श्री पं० वंशीधर व्याकरणाचाये) [गन किरण नं. ४ ५ श्रागे] (५) नयाँका वर्गीकरण . लोकोक्तिका अर्थ यह है कि शुख अर्थात तर्कसम्मत होते उशिखित पराध-प्रमाबाके अंशभूननयोंके जैनधर्ममें कई हए भी लोकहित-विरोधी नको कथन करना चाहिये और वर्ग बतलाये गये हैं। इनमेंसे एक वर्ग द्रव्यार्थिकनय और पर्या- न ऐमा माचरणा ही करना चाहिये। करणानुयोगके महान यार्थिकनायकाचौरममा निश्वयनय चौर व्यबहारनयका है। प्रन्थ गोम्मटसार-जीवकांटमै सम्यग्दष्टि (ज्ञानी) और पहिले वर्गको 'नयोंका सैद्धान्तिकवर्ग" कहा जायकता और मिथ्यारष्टि (भज्ञानी) में मेव दिवालाते हुए लिखा है किदूसरे वर्गको "नयोंका आध्यात्मिक वर्ग" कह सकते हैं। इस सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अज्ञानतावश पदार्थके स्वरूपको गलत का कारण यह है कि जैनधर्मके कथनमें दोष्टियाँ अपनाई समझते हुए भी उसका अभिप्राय या उद्देश्य पवित्र होने गई (1) सैजातिकट और (२) चाभ्यात्मिक दृष्टि के कारण सम्यग्दष्टि ज्ञानी ही बना रहता है।" इसमे वह जैनधर्ममें मान्य चार अनुयोगॉमसे इम्यानुयोगका कथन निष्कर्ष निकलता है कि एक व्यक्ति पदार्थ के स्वरूपको सैद्धान्तिक से और करमानुयोग तथा चरणानुयोगका पालत समझने के कारण सैद्धान्तिक रष्टिये अज्ञानी होते हुए कथन माध्यात्मिक दृटिसे समझना चाहिये, क्योंकि वस्तुका भी अभिप्राय या उद्देश्यकी पवित्रताके कारण पाण्यात्मिक स्वरूप समझाने के लिये उसके गुण, स्वभाव, धर्म या अंशोंका दृष्टिले जानी माना जा सकता है और दसरा भ्यक्ति पवार्थक प्रतिपादन करना सैज्ञान्तिक ष्टि मानी गई है और प्राणियों स्वरूपको सही समझनेक कारणा सैद्धान्तिक रष्टिसे ज्ञानी केलच्यभूत शामकल्याणके लिये उपयोगी कथन करना होते हुए भी अभिप्राय या 'श्यकी दुशताके कारण माध्यात्मिक मानी गई है। इन दोनों दृष्टियोंमें भेद आध्यात्मिक दृष्टिसे अज्ञानी माना जा सकता है। यही सबब यह कि जहां सैद्धान्तिक टिम वस्तु के स्वरूपका प्रतीति है कि जहां सैद्धान्तिक रिसे जीवको बारहवं गुणस्थान के अनुसार जैसाका तसा प्रतिपादन किया जाता है वहाँ तक अज्ञानी माना गया है वहां माध्यामिक दृष्टिले उसको माध्यास्मिक टिम दूसरोंके लाभकी रष्टिसे वस्तुका प्रनीतिक चतुर्थ गुणस्थान में ही ज्ञानी स्वीकार किया है। प्रकार विरुव अन्यथा भी प्रतिपादन किया जाता है। यही सब जब सैद्धान्तिक रष्टि और माध्यात्मिक रहि दोनोंम भेद है कि वीतराग जिनेन्द्रकी अष्टद्रव्यसे की गयी पूजा तर्क मिद्ध हो जाता है तो इन दोनों रष्टियोंके अाधार पर स्वीसम्मत होनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टि से उचित न होते हुए कृत नयोंमें भी भेट होना स्वाभाविक है। इसलिये नयाँका भी पूज के लिये लाभकर होनेके कारण प्राध्यात्मिक दृष्टि उक्लिखित दो वर्गों में किया गया विभाजन शाखसम्मत से जैनधर्ममें उपादेय बतलायी गयी है। और महत्वपूर्ण है। साथ ही इन दो बाँके अतिरिक्त एक "सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं खौकिको विधिः। तीमरा वर्ग भी नयाँके बारेमें माना आयकता है, जो यद्यपि बत्र सम्वत्वहानिनं यत्र न प्रदूषणम् ॥ " सोमदेवमरिका यह कथन भी इन दोनों इन दोनों वर्गोंसे भिन्न तो नहीं होगा, फिर भी मावश्यक रष्टियोंके भेदका सूचक है। "यद्यपि शुदं लोकविरुवं न समझ कर हमने इसे स्वतंत्र वर्ग मानना ही ठीक समझा। न कथनीयं नावरणीयम्" ऐसीऐसी लोकोक्तियां भी सिदा- और इस वर्गको हम “नयोका लोक सं वर्ग" नाम न्त और अध्यात्मके भेदको ही प्रदर्शित करती हैं । इम २ सम्मा। जीयो अटुपवयणं तु मददि ! महदि १ यशस्तिलकचम्पू, उत्तरार्ध पृष्ठ ३७३ असम्भावं अजाणमाणी गुरुणियोगा।-जीव कांडगा०२७
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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