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________________ किरण ८] एक मुसाफिर २८१ मिनट तक दे काम करते जाइए इम क्षण तक कामयाबीकी सूरत सामने नहीं है।' कमीज़ वाला एक छोटासा लड़का झाडू दे रहा था। गुप्त जी कुछ सोचनेसे लगे, मौन ! बुढ़ा, मेजें, पोंछ रहा था, तारीख बदल रहा था, फिर बोले-'मुझे अपने आफिसमें एक आदमी __ कागजात सँभाल कर लगा रहा था। की ज़रूरत है, क्या श्राप काम कर सकेंगे ? ___एक घंटे बाद शेखरको काम मिला साढ़े दससे शेग्वग्ने ग सिर खुजलाते हुए कहा-'जरूर! ठीक चार बजे तक, जब तक आफिस खुला रहा, वह पर, मुझे कुछ ऐमा याद पड़ता है कि आपके आफिस हट कर बेठा रहा । खूब सावधानीसे काम किया, खूच के दर्वाजे पर 'नो वेकैन्सी' का बोर्ड लगा हश्रा है। काम किया ।" गम जी जोरसे हम पड़े! शेम्बर देग्बना रह गया। शामको घर जाते वक्त गुप्तजी पाए ! बालहमी थाम कर बोले--'ओह! मालूम होता है, आप 'कहिए मिष्टर शेखर ! कोई तकलीफ तो नहीं है? पिछले चार मप्ताहमें किसी दिन यहां भी चक्कर काम समझ गया ? काट गए हैं। शेखरने कागजात सामने फैला दिये । बोलाशेखर भी हँसा । बोला-'यही बात है! 'जी, सब ठीक है, कृग है आपकी!' गुप्त जीने खुलासा करते हुए कहा-'अरे, भैय्या! गुप्तजीने कागज देखना शुरू किया। और दस अगर बोडे न लगा हो तो इतना काम कर लेते हैं, मिनट तक देखते रहे। उठे तो मुँह पर सन्तोष था। वह भी न कर सकें। मच मानों, कोई दिन ऐसा नहीं बोले-'खूब काम करते हैं-आप! राइटिंग भी होता, जिस दिन चार छ: बदनसीबोंको यहाँसे सुंदर है। अच्छा है, किए जाइए इसी तरह, भविष्य झिड़की खा कर न निकलना पड़ता हो। क्या करें, आपका साथ देगा। हर वेकारको काम तो दे सकते नहीं हैं न ?' शेम्बर जब सरायको लौट रहा था, तब अनेक शेखरने कुछ जवाब नहीं दिया। अनेक मधुर-कल्पनाएँ उसके मस्तिष्क में लहरा रही गुप्तजी फिर कहने लगे--"हाँ, आपको फिल्हाल थी। हर कदम पर वह एक किला खड़ा करता जा चालीस रुपए मासिक और फ्री रहने के लिए मकान रहा था। आज वह बहुत खुश था, बेहद खुश ! मिल सकता है । कहिए क्या इच्छा है?' सुख किसे कहते हैं? इसे शायद आज वह शेखरको लगा. जैसे कोई जबरन उसे स्वर्गके समझ रहा था, महसूस भी कर रहा था। दुनियाकी द,जेकी ओर घसीट रहा है। वह आनन्द-विभोर हर चीज़में आज उसे उल्लाससा, रंगीनी-सी दिखहो उठा । बोला-'मंजूर है।' लाई दे रही थी। आज ऊँची-ऊँची इमारतें उसे बुरी 'तो, देखिए कलसे आ जाइए। काम वुछ ऐसा नहीं लग रही थीं । गद्दी-तकियों पर पड़े लक्ष्मी-पुत्रोंके ज्यादा नहीं है-दससे चार तक, बस! फिर छट्टी।'- प्रति मनमें जलन भी नहीं थी। उसे आज बाजार गुप्तजीके मुँह पर मुस्कान बिखरी हुई थी, आत्म- अच्छा लग रहा था ! बाजारकी प्रत्येक दुकान उसे सन्तोषसा प्रकट हो रहा था। रौनकदार मालूम पड़ रही थी। और सच तो यह है, शेम्बरने दृ-स्वरमें कहा--'बहुत अच्छा । कि उसे अपना अस्तित्व भी आज अच्छा लग -और चल दिया-प्रसन्नतासे पूर्ण ! रहा था।" लग रही थी। आज ऊँची-ऊँचा रंगीनी सी दिक 'टन्न!' दो बज चुके थे-- शेखरने नजर फिरा कर देखा-'साढ़े नौ !' पर, शेखरकी आँखों में आज भी नींद नहीं थी। आफिस-वक अभी प्रारम्भ नहीं हुआ था । कोई वह सरायकी उस गन्दी-कोटरीकी बात सोच रहा भी क्लर्क नहीं आया था। सब सूनसान था। फटी था। असलमें आज उसे सरायसे अरुचि पैदा हो गई
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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