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________________ २८२ अनेकान्त [वर्षे ६ है। वह सोच रहा है-गय उस जैसी श्रेणीके हे। शायद स्त्री! कितनी कातर ध्वनि है उफ् !' व्यक्तिके ठहरने लायक जगह नहीं। कितनी गलीज? फिर सुन्ग-पति समझा रहा था-रात-भर रोओ, छिः! कोलाहल गाली-गलोज, अशान्त और अधम दिन-भर रोओ, जिन्दगी-भर रोती रहो-इसी लिए मुसाफिर ! सबके सब दरिद्र, दीन !' बच रहा बच रहे हैं, नहीं और अब दुनिया में हमारे लिए नहा मार. विस्तर पर लेटा, शेखर उद्विग्न हो उठा है। क्या है ? पर, इन नादान बच्चोंका क्या होगा ? खाना कोठरी, नरककी तरह मालूम हो रही है उसे । स्वयं कहाँस लाकर इन्हें खिलाऊँ ? मैं इसी सोचसे मग चकित है, कि इतने दिन काट कैसे सका इस सँडाद- जा रहा हूँ।' भरी भागनक कोठरीमें ! जहाँ-तहां चूहोंने बिल बना शेखरका मन व्यथित हो उठा। रखे हैं। टेडी-मेड़ी लकड़ियोंसे पटी हुई छत इतनी स्त्रीने रोते-रोते पूछा-'कहीं दूसरी जगह नौकरी शिथल हो रही है, जैसे अब गिरी । हर समय घुन तलाश नहीं कर सकते ? तुम्ही हिम्मत हार जाओगे बरसता रहता है। कोई कोना ऐसा नहीं, जहां जाल तो कैसे काम चलेगा?' न तने हुए हों। चारों ओर धूल-मिट्टी. कूड़ा करकट ! पतिने खीज कर कहा--चल गया काम ? ___ दो बज रहे हैं. पर चूहोंका गदर अभी तक उसी जानती नहीं, कितनी मुश्किलसे यह नौकरी मिली रफ्तार पर है, जिस परसे शुरू हुआ था ! और यह थी-कितनी रा. कितने दिन बगैर सोये, बगैर है वह शयनागार! जहाँ मोकर-विश्राम लेकर- खाये वितानेके बाद दोनों वक्त रूखा-सूखा खानेका सुबह परिश्रमके लिए ताजगी प्राप्त करना है। बल बन्दोबस्त हो सका था !! संचय करना है या उस बलकी पूर्ति करना है, जो 'पर, नौकरी एकाएक बूटी क्यों ? गबन किया अगले दिन परिश्रममें व्यय हो चुका है।' नहीं, कुसूर किया नहीं--कुछ भूल हुई नहीं, फिर ?..." शेखरने एक लम्बी अँगड़ाई ली और आप ही में खुद नहीं जानता, कि मुझे नौकरीसे जवाब बड़बड़ाने लगा, जैसे मनकी उद्विग्न मनोवृत्तियोंका क्यों मिला? पर, कुछ आफिसके लोग कहते थेममाधान कर रहा हो-'और दो एक दिनकी बात गुपजीका कोई दोस्त इस जगह पर काम करेगा है । फिर तो 'क्वाटर' में जाकर डेरा डालना इसी लिए........!! ही है।' और इसी वक्त छोटेसे बच्चेकी रोनेकी आवाज और वह सोनेका प्रयत्न करने लगा। ने बात-चीत बन्द करदी। शायद दस मिनट बीते होंगे, कि शेखर उठ शेम्बरकी चेतना लुप्त ! देर तक वह ज्यों-का त्यों बैठा। न जाने कैपी बेचेनीमी उसे परेशान किए हुए दीवार के सहारे बैठा रहा। थी। वह कोठरीकी, बराबरकी दीवारसे सट कर बैठ गया। अर्धरात्रीकी नीरवताने उसकी सहायता की, गुप्तजी कुर्मीपर बैठे अखबार देख रहे थे। युद्ध वह सुनने लगा। आवाज़ बराबरकी दूसरी कोठरीसे की खबरों में इतने खोये हुए थे कि शेखरका पाना आ रही थी। तक उन्हें मालूम न हुमा । पूरा 'कॉलम' पढ़ने के बाद ___ 'ओह! भगवान, अब इन बच्चोंका क्या होगा? जब नजर उठाई तो शेखर ! कैसे गुजर चलेगी? नींद नहीं, भूख-प्यास सब कुछ शेखरने अभिवादन किया । अलगहोरही है। अचानक यह आफत फट पड़ेगी- गुप्तजी बोले-'अरे, तुम्हारे लिए क्वार्टर खाली खयाल तक नहीं था !' हो गया है-श्रा जाडो उसमें ।' शेखरने सुना-कोई सुबक-सुबक कर रो रहा शेखर चुप रहा। मुँह उसका बेहद रामसीन था। - दूसरी सुबहः-
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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