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________________ २८० अनेकान्त [वर्षे ६ थ बदाया और देखते हूँ शेखरने गुप्त जी आपका ही है-देख लीजिए, इसमें एक लार्ड है-- फिर जैसे निर्णयको छू कर बोला-'इन कागज उस पर आपका पता है।' के टुकड़ोंसे आप मेरी मानवता खरीदनेकी चेष्टा कर, गुप्तजीने बटुएके लिए हाथ बढ़ाया। और ऊपरसे मुझे दुःख पहुँचा रहे हैं गुमजी ! मैं क्षमा चाहता नीचे तक, एक बार गहरा दृष्टिसे शेखरकी ओर देखते हूँ......!'हुए, अचरज-भरे-स्वर में बोले-'ओह ! श्राप पर्स नोट शेखरने गुप्त जीकी ओर सरकादिए । और मुझे देने आए हैं ? बढ़ा दर्वाजेकी ओर। शेखरने धीमे-से कहा-'जी!' गुप्तजी चकित, स्तब्ध ! गुप्तजीने बटुआ खोला-नोट देखे, अँगूठी 'कैमा आदमी है यह ? पैसे की जरा भी ममता देखी और अपना कार्ड भी। फिर ऐमी नज़रसे देखते नहीं है, इसके हृदयमें ! आखिर क्यों ??--गुप्तजीने हुए जैसी नज़रसे देवता देखे जाते हैं, मुस्कराते हुए पलक मारते सोचा। पर, शेखर तत्र तक आफिसके बोले--'धन्यवाद ! पर्स मेरा ही है । असावधानीसे बाहर हो चुका था। कल कहीं गिर गया था। कहाँ, पार्क में मिला श्रापको ? गुप्तजीने एलार्म दिया। दर्वान पाया शेखरको 'जी, वहीं जमीन पर पड़ा था-घासमें। .. बुलानेका हुक्म दे, वे उमीके बारेमें सोचने लगे। अच्छा तो, इजाजत है, चलूगा "!' शेखरने दोनों अँगूठी बटुपके ऊपर ही रखी हुई थी, रटा कर देखने हाह जोड़े और चलनेको हुथा, मुड़ा भी थोड़ा कि लगे उलट-पलट कर-साढ़े चारसौकी खरीदी थी, गुप्तजीने टोका--'अरे, चल दिए मिष्टर ! यह अपना अब तो शायद मँहगाईमें दुगनी कीमतमें भी ऐसा पुरस्कार तो लेते जाइए ।,-गुप्तजीने कुछ नोट उठा 'नग' मिलना मुश्किल होगा?' कर शेखरकी ओर बढ़ाए। शेखर आया। शेखरने बगैर श्रागा-पीछा किप तत्काल जरा 'क्या आपने मुझे बुलाया ?' मज़बूत-स्वरमें कहा- 'नहीं, पुरस्कारके लायक तो 'बैंठिए-मिष्टर, बैंठिए ऐसी भी क्या जल्दीमैंने कुछ किया नहीं है-गुप्तजी! पुरस्कार कैसा? गुमजीने खड़े होकर शेखरको बैठाला, आत्मीयताके यह तो मानव-कर्तव्य ही है न?' साथ, श्रद्धाके साथ। और शेखर फिर चला। शेखर बैठ गया। गुप्तजीने फिर बुलाया। बोले-'कह तो आप नौकरने बायकी ट्रे लाकर रखदी। ठीक रहे में मिष्टर ! लेकिन फिर भी आपने दोनोंने चाय पी।गुप्त जीने पूछा-'आपका नाम ?' वैसा कुछ जरूर किया है जैसा अक्सर देखने में बहुत 'शेखर !' कम आता है और इसी लिए मैं समझता हूँ-आप 'शेखर ? सिर्फ इतना ही को पुरस्कार मिलना चाहिए।' 'जी, इतना ही समझिए। अधिक परिग्रह भगगुप्तजीन नोट शेखरके आगे रख दिए। शेखर वानकी ओरसे ही नहीं मिला, तब अक्षरोंकी अधिकुछ क्षण मौन, खड़ा रहा । पर, उसकी दृष्टि नोटोंपर कतासे ही क्या लाभ ?' नहीं थी, गुप्तजीके चेहरे पर भी नहीं थी। न जाने गुप्तजीने तनिक गंभीरतासे कहा-'हूँ! आप वह क्या देख रहा था, क्या सोच रहा था। मुँह पर काम क्या करते हैं ? विषादकी रेखाएँ उभर रहीं थीं-शन्यसी निरर्थक- 'फिलहाल तो बेकार हूँ !' दृष्टि ! 'क्यों ? काम करना नहीं चाहते, या!' शायद वह भीतर-दी-भीतर अपनी पोजेटिव- 'मिलता नहीं है--गुप्तजी! करीब चार सप्ताहसे निगेटिव-वृत्तियोंसे उलझ रहा था। मैं कामकी तलाशमें घूम-फिर रहा हूँ, लेकिन इस
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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