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________________ जैनधर्म पर अजैन विद्वान् प्रसिद्ध जर्मन लेखिका भारतीय साहित्य विशारदा जैन महात्माोंने संयम और शासनका सामअस्य प्रकट डा० चारलोटी क्रौज़ Ph. D. किया। यही कारण है. कि तत्कालीन राज सत्तावादका "जैनधर्म भारतवर्ष प्रति प्राचीन धर्मोंसे एक. विध्वंस होते ही बौद्धोंका विनाश हो गया और जैन समाज जोकि बौद्ध धर्मसे भी प्राचीन है और प्रायः वर्तमान एक राष्ट्रकी हैसियतसे बच गया। अभिप्रायके अनुसार अति प्राचीन हिन्दू शाससे भी पूर्व श्री उपेन्द्रनाथ काव्य-व्याकरण-साँस्यतीर्थ,भिषगाचार्य:अवस्थितिका है। इस धर्मने एक समय भारतीय धर्मा पर श्रीमद्भागवतकी वर्शनाको देखकर मेग विश्वास है कि बड़ा प्रभाव डाला था।" त्रिय वंशजनामि राजाके पुत्र श्रीमान् चषभदेष जी राज्य हिन्दीके प्रसिद्ध लेखक आचार्य श्रीचतुरसेनजी शास्त्री कीवालमाको छोर सर्व भूतोंको समान देखने वाले मैं यह स्वीकार करता है कि जैन सिद्धान्तों में समाज सन्यासी बन गये थे। उन्होंने स्वयं सिद्ध होकर निवृत्ति संगठनकी अपेक्षा पाम संस्कार और भारम निर्माण पर प्रधान धर्मका उपदेश दिया, समरक अर्थात् सबको समान ही बना भारी और वैज्ञानिक जोर दिया गया है। निस्सन्देह देखने वाले ऋषिके पास जाति भेदका प्रश्न ही नहीं उड इस एकाली पातके कारण ही जैन समाजकी वृद्धि में तूफानी सकता है, इससे मालूम होता है कि उस समयमें जो लोग पाद नहीं भाई, जैसी कि बौख समाजमें पाई थी। और उनके उपदेशसे निवृत्ति प्रधान धर्मको स्वीकार कर लिये थे मह कहना तो व्यर्थ ही कि बौगोको राज्य सत्तार्य के लोग और उनके वंशधर जैनी कहलाने लगे. इसके बाद प्राप्त हो गई थीं-क्योंकि जैन महाराजाभोंकी कथासे भी जैनाचार्योंके उपदेशसे सर्वदाही अजैनी जैन बनते रहे। मसीहकी प्रथम शताब्दियोंका भारतका इतिहास भरा पक्षा प्रो०श्रीशिवपूजनसहायजी अध्यक्ष हिन्दी विभाग है। परन्तु मैं इस भाबर्यजनक बात पर तो विचार श्री राजेन्द्र कालेज छपरा (विहार):करूंगा ही कि लगभग समान कालमें, समान भावनासे मैं नि:संकोच कह सकता है कि जैन धर्मके सिद्धान्त उदय होकर बौद्ध और जैन संस्कृतियाँ उठी, बौद्ध संस्कृति तूफानकी तरह एशिया भरमें फैलकर अति शीघ्र समास बडे निर्मल और कल्याणकारी हैं। यह भारतका एक हो गई, जैन संस्कृति धीमी चाबसे अभी तक भी चली अत्यन्त प्राचीन एवं जगप्रसिद्ध धर्म है। मनुष्यकी चन्त: शुद्धिके विधानमें यह विशेष सहयर है। यदि इसके सम्यक पा रही है। चारित्रिक उपदेशों या माध्यामिक शिक्षाओं पर मानव दोनों संस्कृतियाँमात्म संस्कारको प्रधान मानती रही, जाति वस्तुतः ध्यान दे तो संसारमें अशान्ति ही न रहे। परन्तुभावश्यकता पड़ने पर जैन और बौख दोनों ही महाराजाभोंने प्रबल युद्ध किये जिनमें बचावधि प्राशियोंका श्री रामरत्नजी गुप्त एम० एल० ए० (केन्द्रीय)हनन हुमा । परन्तु जिस प्रकार महान् प्रशान्त प्रेम जैनधर्म वास्तवमें एक कर्तव्य प्रणाली है। वह मनुष्यको और माके प्राचार्य मसीहके विधासी योरुपकी महा मनुष्य बननेकी शिक्षा पहिले देता है और इसी शिक्षा साथ शक्तियां लोकी भार बहाने में प्रति पण सञ्चद रहती है ही वह यह भी निर्देश करता है कि यह मनुष्य शरीर मी एक फिर भी वे उस पवित्र और दया-धमा पूर्व ईसाई धर्मकी मार है। एक संमट है। इसे बोर देना. इसे त्याग देना विश्वासी है, उसी प्रकार जैन और बौद्ध राजाओंकी वही तथा इसके सम्बन्धमें समूचा परित्याग कर देना ही वास्तपरिस्थिति थी। तब बौद्धक विनाशका कारण एकहीही विक धर्म है। इस महापन्थका मुख्य तत्व पांच 'मूलगुणों सकता है, कि उन्होंने न्याय और अधिकारकीराके लिये में सचिहिव । इन मूब गुफाम पंचम गुण नही, प्रत्युत विप्यासे मानव रक्तबहाया। इसके विपद 'अपरिग्रह।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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