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________________ श्री पंडितप्रवर टोडरमलजी और उनकी रचनाएँ (लेखक--पं० परमानन्द जैन शाखी) हिन्दी-साहित्य दिगम्बर जैन विद्वानोंमें पं. टोडरमल कुछ ऐमा भी ध्वनित होता है कि पंडितजीकी माताका नाम जीका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । आप हिन्दीके रमा और पिताका नाम जोगीदास था। गद्यलेखक विद्वानोंमें ऋषितुल्य समझे जाते हैं। खंडेनवाल "मैंबो जीवद्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरौ जानिके श्रार भूषण थे। विद्वत्ताक अनुरूप ही आपका स्व लग्यो है अनादित कलंक कर्ममलको, भाव भी अत्यन्त विनम्र और दयालु था । स्वाभाविक ताही को निमित्त पाय रागादिक भाव भये कोमलता और सदाचारता आपके जीवन के सहचर थे। भयो है शरीरको मिलाप जैसो खलकौ । अहंकार तो आपको कर भी नहीं गया था । आन्तरिक रागादिक भावनिको पायकै निमित्त पुनि भद्रता और वात्सल्यताका परिचय आपकी सौम्य प्राकृति होत कर्मबंध असो है बनाव कलको, को देखकर सहज ही दोजाना था । श्रापका रहन-सहन असेही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग बहुत सादा था श्राप साधारण अंगरखी, घोनी और पगड़ी बनै तो बनै यहां उपाव निज थलको ।। ३६ ।। पहना करते थे। स्वाभाविक श्रावताने उस सादगीको रमापति स्तुतगुन जनक जाको जोगीदास । और भी चार चाँद लगा दिये ये । आध्यात्मिकताका तो सोई मेरो प्रान है धार प्रकट प्रकास ।। ३७ ॥ आपके जीवनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। श्री कुन्दकुन्दादि मैं प्रातम अरु पदगल वंध मिलिके भयो परस्सर बंध । महान श्राचार्योंके आध्यात्मिक ग्रंथोक अध्ययन, मनन सो असमान जाति पर्याय उपज्यो मानुष नाम कहाय ॥२८॥ एवं परिशीलनसे आपकी बुद्धि खूब परिपक्व हो चुकी थी। मात गर्भमें सो पर्याय करिके पूरण अंग सुभाय। श्राप अध्यात्मरसके गाद रसिया थे और उसका श्रापके बाहिर निकास प्रगट जब भयो तब कुटुम्बको मेलो थयो । ३६ जीवनपर अच्छा प्रभाव पड़ा हुआ था । अध्यात्मरसकी नाम घर्र्यो तिनि हरषित होय टोडरमल्ल कहैं सब कोय । चर्चा करते हुए वे अानन्दविभोर हो उठते थे और श्रीता सोना असो यहु नानुष पर्याय वधत भयो निज काल गमाय ॥४. जन भी उनकी वाणीको सुनकर गद्गद् होजाते थे। यद्यपि श्राप घरमें रहते थे और गृहस्थोचित कर्तव्यका पालन भी तिस पर्याय विर्षे जो कोय, देखन जानन दारो सोय । करते थे; परन्तु उसमें श्रासक्त नहीं ये-जल में कमलकी मैं हों जीवद्रव्य गुन भूप एक अनादि अनंत अरूप ।। ४२ तरह सदा निलिम रहा करते थे । निस्पृहता एवं निर्भयता कर्म उदयको कारण पाय रागादिक हो हैं दुखदाय । के साथ साथ संवेग और निवेंदताकी भी आपके जोवनपर ते मेरे औगांधक भाव इनिकौं विनरों में शिवराव ४३॥ गहरी छाप पड़ी थी। यही कारण है कि आप घर में रहते वचनादिक लिखनादिक किया वर्णादिक अकादय दिया । न हुए भी वैरागी थे। ये सब है पुद्गलका खेल इनिमें नह हमारौ मेल ॥४॥ यद्यपि पंडितजीने अपना और माता-पितादि कुटुम्बी पंडितजीके दो पुत्र थे। एकका नाम हरिचन्द्र और जनोंका कोई परिचय नहीं दिया और न अपने लौकिक दूसरेका गुमानीराय या गुमानीराम था । हरिनन्द्रको जीवनपर कोई प्रकाश ही डाला है। फिर भी लन्धिसार ग्रंथ अपेक्षा गुमानीगयका क्षमोपशम विशेष था, वह प्रायः की टीका प्रशस्तिमें जो कुछ परिचय दिया हुश्रा है उससे पिताके समान ही प्रतिभासम्पन्न था और इमलिये पिताके उनके आध्यात्मिक जीवनका बहुत कुछ पता चल जाता है। कार्यों में यथायोग्य सहयोग देता रहता था । पिता के स्वर्गप्रशस्तिके कुछ पद्य इस प्रकार हैं, जिनसे ३७वें पद्यसे वासके बाद गुमानीरायने 'गुमान पंथ की स्थापना की थी।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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