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________________ ३२० भनेकान्त [वर्ष लाखों पदाचोंसे भारी है, करोडो वस्तुओंसे हलकी है, वे तो बास्तविक सद्भून द्रव्य, गुण, पर्यायोंको प्रवक्तव्य अनेकोंसे बड़ी, फलानी फलानी कतिपयोंसे छोटी है असं रूपसे जान रहे हैं। जबकि तत्व निर्विकल्प है "स्वसहार्य ख्या अधिक चिकनी, दस काये ग्यारहाने तीन पाई निर्विकल्पं"। (पंचाध्यायी) की है सुन्दर है, फहर है और न जाने कितनी भूत, वर्तमान यत् परैः प्रतिपाद्योइं यत्परान् प्रतिपादये । भविष्य कालीन अनन्तानन्त पुद्गल पर्यायोंकी अपेक्षा खुर- उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः॥ खुर्ग है, कम कीमत है, बहुमूल्यवान् है इत्यादि प्रापेक्षिक (समाधितंत्र) विषयोको वे नहीं देंगे। श्राप लोग इन थोथे धोको तब तो उसका साक्षात् शान भी निर्विकल्पक ही है शुतज्ञानसे जानते रहो । श्रानन्स्य नामके दोषका भी लक्ष्य कतिपय कल्पित शब्दयोजनायें, निन्दा प्रशंसाये सापेक्षरखना चाहिये। शानियोंने लगाली है। निर्बलता या इस आततायीपनका “अत्थादो अत्यंतर मुभलंमंत भणन्ति सुदणा- उत्तरदायित्व केवलशानी नहीं भुगत सकते है। रणम्" यों ये सब अयंसे अर्थान्तरोंके ज्ञान है। कुछ इन केवल सम्यक्त्व गुणके लिये ही “यस्माद् वक्तुंच में पोंगापन भी है। इसी प्रकार श्री महावीर स्वामीने ओणक श्रोतुंच नाधिकारी विधिक्रमात्" (पंचाध्यायी) यानी रानाकी भूत सौवीं पर्याय जानी, वे मनुष्य थे। वीरने उनके असली सम्यक्त गुणको कहने और सुननेका अधिकार किसी गुग्यो, सुख, दुःखो मादिका अन्तःप्रवेशी केवलशान कर को नहीं मान बैठे हो. भाईयों अकेले सम्यकल गया लिया। किन्तु वह मनुध्य सौका तो भानजा था, पाँचसो । लिये ही यो क्यों कहते हो । सभीके लिये कहो। हाँ, गुरु का मामा, चाचा, ताऊ था। दस हजार आदमियोंसे शिष्यके प्रतिपाद्य-प्रतिगादक भावमें लानेके लिये वस्तु भित्ति छोटा था। अमुक अमुक से बड़ा था। यदि वह अमुक पर कुछ स्वभाव, आपेक्षिक धर्म, नेय विषय भी माने गये औषधि खा लेता तो बच सकता था । उचित औषधि है। तभी तत्वनिर्णय हो सकता है। और श्रवक्तव्य प्रयेय मूल्यवान् होनेसे नहीं मिल सकी थी, अतः मध्यमें मर गया पर भी उसी मार्गसे पहुंच पाते हैं। होगा इत्यादि विचारणायें केवलीके शानमें नहीं होपाई है प्रथम ही "देवशास्त्रगुरुश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" कहा बोलना, चाल, शारीरिक चेष्टाये (अदायें) अक्षर लिखना जाता है। कुछ व्युत्पत्ति हो जाने पर "तत्त्वार्थश्रद्धानं मादिके परिवर्तन बील आपेक्षिक टेढ़े बाँकुरेपनका बैंकका सभ्यग्दर्शन" समझाया जाता है। पचात् "स्वानुभूतिः सा ऐकाउन्ट उस शानमें उल्लिखित नहीं है। त्रिकालवती सम्यग्दर्शन" कह कर तत्वबोध कराया जाता है। बढ़िया अनन्तर जीवोंकी विभिम सूरतोंकी . परस्पर विलक्षणताका व्युत्पत्ति होजाने पर सभ्यग्रष्टि स्वयं अपने सम्यक्त्वको हिसाब बहुत बड़ा है। स्थाद्वाद-सिद्धान्त या नयवाद तो निर्विकल्पक प्रवक्तव्य अनुभवन करता रहता है यो वाच्यशानियोंके लिये है, केवलशानियोंके लिये रत्तीभर भी उप- वाचक भाव भी यथार्थशानमें उपयोगी है। हम क्या करें योगी नहीं। शुक्लध्यान . द्वारा कोका क्षय करने वाले ऐसे कार्यकारणभावपर कुचोद्योंका आक्रमण नहीं हो पाता है। .लम्बे लम्बे समीचीन नयज्ञान जो श्रेणियों में होते हैं वे सब परमेष्ठीकी भक्तिके बिना मोक्ष नहीं मिलती है। यह नशान है भत्रिचारक सर्वशके नहीं उपज पाते हैं। न्याय परमरया निमित्तिनैमित्तिकमाव बहुत बदिया है। किन्तु छात्रोंमें प्रत्यक्ष ज्ञानको अविचारक कहा है। नित्यानित्यात्मक पाठवें, नौवें बारहवें गुणस्थानोमें तो परमेष्ठीकी भक्तिको बस्तु है। अस्तिवनास्तित्व स्वरूप पदार्थ है।अनामिका अंगूठी छोड़ो, कहां तक परको पकड़े रहोगे। वहीं तो प्रवक्तव्य कनिहासे बड़ी और मध्यमासे छोटी तथा न जाने कितने आत्मतत्वका संचेतन करे जाओ। तद्वत् नयज्ञानोंसे नेय अनन्त-पदायोसे. छोटी बड़ी है ये सब पापको यथाशक्ति या उसभंगी स्थाद्वाद् एवं तर्कवितर्कात्मक विषयोपर भी कल्पनायें हैं। केवलशानीको मत झुकानो। इस कार्यको बारहवें गुणस्थान सर्वशके शानमें इन रदी चीजोका प्राकार नहीं पड़ता तकतम कर दो। (क्रमशः)
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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