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________________ सजना कुछ श्वेता समितिमें सा किया सहयोगी 'जैनसत्यप्रकाश' की विचित्र सूझ! "मांखों पर पट्टी बांधकर कुएँ में धकेलना" >ARAK [सम्पादकीय] वीर-शासनके प्रवर्तनको ढाई हजार वर्ष हुए वालोंको यह प्रेरणा की है कि वे इस महोत्सबमें और जिस स्थानपर वह विशेषरूपसे प्रवर्तित हुआ शरीक न हो। इतना ही नहीं, बल्कि वीरसेवामन्दिर बह तत्कालीन राजा श्रेणिककी राजधानी 'राजगृह' के उक्त प्रस्तावमें यन्धु भावसे श्वेताम्बर तथा स्थानकनगर है, इसमें कोई विवाद नहीं है। ऐसी हालतमें वासी सजनोंसे सहयोगके लिये निवेदनकी जो बात वीर-शासनका 'अर्धद्वय - सहस्राब्दि -महोत्सव' कही गई है, कुछ श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी मनाया जाना जहाँ न्याय प्राप्त है वहाँ उसके लिये नेताओंके जो नाम प्रस्थायी समितिमें चुने गये हैं 'राजगृह' का स्थान चुनना भी समुचित जान पड़ता और जिस आशय तथा आशाको लेकर ऐसा किया है। इसीसे वीरसेवामन्दिरसरसावाने, जो कई वर्षसे गया है उसका मैंने अपने उक्त लेखमें जो स्पष्टीकरण -अपने जन्मकालसेही-वीरशासन-जयन्ती मनाता किया है, उस सबको दिगम्बरोंका अपने साथी सम्प्रआ रहा है, इस वर्ष एक प्रस्ताव-द्वारा राजगृहमें वीर- दायबालों-श्वेताम्बरों तथा स्थानकवासियोंकी आँखोंपर शासन-जयन्ती-महोत्सव' मनाने का आयोजन किया पट्टी बाँध कर उन्हें कुएँ में धकेलनेका प्रयत्न' बतलाया है। वीरशासनकी प्रभावना और प्रचारकी दृष्टि से, इस है! सहयोगीकी इस कट्टर साम्द्रदायिकताको लिये महोत्सवके साथमें जैनसाहित्यय-सम्मेलन और एक हुए अनुदार एवं असामयिक मनोवृत्तिको देग्ब कर जैन साहित्यिक प्रदर्शिनीकी योजना भी की गई है मुझे बड़ा ही दुःख तथा अफसोस हुया !!! कहाँ तो और उत्सवको अखिल भारतवर्षीय महोत्सवका रूप देशमें, समयादि-सम्बन्धी अनेक मत-भेटों अथवा दिया जा रहा है। इस समाचारको पाकर जहाँ जैनी- विचार-भेदोंके होते हुए भी, विक्रम-द्विसहस्राब्दिमात्रको प्रसन्न होना चाहिये और अपनी शक्तिभर महोत्सव मनाये जानेका आयोजन हो रहा है, और ऐसे सत्कार्यमें सहयोग प्रदान करके अपना कर्तव्य उसमें सभी प्रकारके विचार-भेदयाले अपनी अपनी पूरा करना चाहिये वहाँ अहमदाबादसे प्रकाशित होने शक्ति और मतिके अनुमार किसी-न-किसी प्रकार वाले सहयोगी जैनसत्यप्रकाश' नामक मासिक पत्रको सहयोग देनेके लिये उच्चत हो रहे हैं और कहाँ हमारे कुछ उल्टी सूझी है। उसने वीरशासनकी उत्पत्तिके सहयोगी 'जैनसत्यप्रकाश' के सम्पादकजी, जो बीरसमय और स्थान-म्बन्धी स मतभेदको लेकर, जिसे शासनके अर्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव जैसे सत्कार्यमें मैं अनेकान्तकी गकिरण नं.२ में प्रकाशित 'वीर- स्वयं सहयोग देनेके लिये कुंठित और पश्चात्पद ही शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान' नामक अपने नहीं किन्तु दूसरोंको भी इसमें सहयोग देनेसे मना सम्पादकीय लेखमें स्वयं प्रकट कर चुका हूँ और जोमत- कर रहे हैं !! इसे वीरशासनसे द्वेष कहें,बीरशासनके भेद राजगृहमें बीरशासनका अर्धद्वय-सहस्राब्दि-महो- अनुयायियोंसे द्वेष कहें, अपनी मान्यतासे थोड़ा-सा त्सव मनाने तथा उसमें सभी जनसंप्रदायोंके सहयोग __ भी मतभेद रखनेवालोंसे द्वेष कहें अथवास.तियारह देने एवं सम्मिलित होने में कोई बाधक नहीं है, कुछ कहें १ कुछ समझमें नहीं पाता !!! विरोध खड़ा किया है, और अपने श्वेताम्बर संप्रदाय हालमें मुझे 'विक्रम-द्विसहस्राब्दि-स्मृति-प्रन्थ' की
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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