SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ अनेकान्त [वर्ष ६ एक विज्ञप्ति प्राप्त हुई है, जिसका एक पैरेप्रान इस जो वीरशासनका अर्धवयसहस्राब्दि-महोत्सव मनाया प्रकार है: जा रहा है उसके जिन जिन कार्यों में वे खुशीसे अपना ___"महाराज विक्रमादित्यका कालनिर्णय अथवा सच्चा सहयोग प्रदान कर सकते हैं उनमें सद्भावपूर्वक वंशावली विद्वानोंके वाद-विवादका विषय हो सकती अपना सहयोग जरूर प्रदान करें । फिर व्यर्थ में है, परन्तु इस विषय में समस्त जगत एकमत है कि विरोधका वातावरण पैदा करने, दूसरोंकी दृष्टिमें सम्राट विक्रमादित्य नामक एक ऐसी शक्ति, एक ऐसी अपनी संघशक्तिको निर्बल बनाने और अपनी अनेमहान् विभूति भारतमें हुई थी जिसने विदेशी बात- कान्त-उपासनाका उपहास करानेसे क्या मतलब? तायियोंके दुर्दमनीय अत्याचार-भारसे भारतकी रक्षा की क्या अनेकान्तकी उपासनाप-1 यही उद्देश्य है? क्या और कविकुल-गुमकालिदासको अपने सौहादेका प्रश्रय अनेकान्त ऐसे विरोधकी इजाजत देता है? और देकर शौयेके कांचनमें साहित्यकी सुरभि बसा कर क्या अनेकान्त इस महोत्सवमें शरीक होनेके लिये संसारको चमत्कृत कर दिया।" समन्वयका कोई मार्ग नहीं निकाल सकता ? इसे मतभेदके उल्लेख-पूर्वक इस प्रकारकी बातोंको. श्वेताम्बर समाजके प्रमुख विद्वानों तथा नेताओंको लेकर स्मृति-पंथके सम्पादक महोदय उन विद्वानों के सोचना चाहिये। पास भी पहुँच रहे हैं जो अनेक प्रकारका मतभेद अथवा विचार-भेद रखते हैं, और इस तरह किसी न महाबीर-जयन्तीके उत्सवोंपर और दूसरे भी ग्विसी रूपमें उनका साहित्यिक सहयोग प्राप्त कर रहे अनेक जल्सोंपर जैनियों द्वारा अजैन विद्वानोंको है। वे दूसरोंको अपना विचार बदलने अथवा उन्हीं के आमंत्रित किया जाता है, उनके सभापतित्वमें जल्से विचारानुकूल निबन्धादि लिखनेकी प्रेरणा नहीं करते। मनाये जाते हैं, और वे ईश्वरवादी अजैन बिवान वह इसी तरह वीरसेवामन्दिरके कार्यकर्ता अथवा दिग जानते हुए भी कि जैनियों के साथ कितनी ही बातों में पर समाजके विद्वान वीरशासनके प्रचार, प्रसार उनका मतभेद है-जैनी उनके ईश्वरको, उनके वेदों और प्रभावनाके नाम पर यदि अपने श्वेताम्बर को नहीं मानते, उनके सिद्धान्तोंका एखन करते हैं भाईयोंके पास पहुँचें और उनसे बीरशासनके उपा और उनके भ० महावीरने भी ईश्वर के जगत्कतत्वका सक होनेके नाते मतभेदकी साधारण बातोंको भुला खण्डन किया है, हिंसात्मक वेदोंका निषेध किया है कर अथवा उन पर न जा कर शासन-सम्बन्धी महो और उनके कितनेही सिद्धान्तोंको मिथ्या ठहराया हैत्सवके कार्य में अपना यथायोग्य सच्चा सहयोग खुशीसे उनके जल्सोंमें शरीक होनेकी उदारता प्रदान करनेके लिये निवेदन करें तो इसमें वे उनसे दिखलाते हैं, जल्सोंका सभापतित्व करते हैं और अपने वीरशासनके प्रति अपना कर्तव्यपालन एवं कृतज्ञता भाषणों द्वारा जैनमत तथा भ० महावीरके विषय में ब्यक्तीकरणके सिवाय क्या कुछ अधिककी मांग करते जो कुछ भी अच्छी बातें उन्हें मालूम होती है उनकी ११वे उनसे मतभेदकी साधारण यातको भी सर्वथा खुले दिलसे प्रशंसा करते हैं। क्या दिगम्बरोंको अपने छोड़ देनेका अनुरोध नहीं करते नहीं कहते कि वे श्वेताम्बर भाईयोंसे, जो वीर भगवान और उनके राजगृहमें होने वाले प्रथम समवसरणको वीरभग शासनकी उपासनाके समान दावेदार हैं, इन अजैन वानका तृतीय समवसरण न मानकर द्वितीय समव विद्वानों-जितनी उदारताकी भी इस महोस्सबमें सरण मानने लगें और वीरवाणीके प्रथम समवसरण प्राशा नहीं रखनी चाहिये ? और क्या बेइन विद्वानों में खिरने और निष्फल रहने जैसी अपनी मान्यताओं की तरह अपने मतभेदको सुरक्षित रखते हुए भी को त्याग देखें। वे तो उनसे इतना ही कहते है कि महोत्सवमें योग नहीं दे सकते? वीरशासनको प्रवर्तित हुए ढाई हजार वर्ष होने पर श्वेताम्बर समाजने, अपने महावीर जयन्ती और
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy