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________________ जीवन और धर्म (ले० श्री. जमनालाल जैन विशारद ) जिस समय हमारा जन्म होता है उसी क्षण से उस आदिपा होत्फुल्ल हो किलकिलाते हुए हमारे पास श्रा समय तक, जब तक मृत्यु-मुखमें हम नहीं पहुँच जाते, जाता है और उसे हमसे लेने का उपक्रम अपनी शक्ति और जीवन कहते हैं । जन्मक उपरान्त ही हमारी प्रवृत्तियां मामर्थ्यानुमार करने लगता है। एक बार उसके हाथ में उस प्रारम्भ हो जाती है । जब तक हम श्रबोध, विकारहीन वस्तुके पहुँचमके उपगन्त यह सहज सम्भव नहीं कि वह एवं सभाके माया जालमें लिप्त रहते हुए भी अनजान तत्काल ही और बिना किमी हिचकिचाहटके उसे में देदे. रहते हैं. प्रकृान हमारी सहचारिणी रहती है-खेलना, यह बिल्कुल असम्भव है कि वह, उस वस्तुके उसके पास खाना, हँसना, गेना श्राद ममस्त कार्य उसी के साथ निरंतर से छोने जानेपर न रोए अथवा अपने को दु:खित अनुभव हुमा करते हैं । लेकिन, ज्यों ज्यो हमारी शक्तियाँ बढ़ती न करे। जाती है. गग-द्वेषकी प्रवृत्तियाँ विक्रमित होती जाती है, प्रकृति के भीतर एक ऐसी अलौकिक शक्ति है, जो मोह-ममता घर करती जाती है, एक दूसरेसे परिचित होते प्रत्येक प्राणीको अपनी ओर आकृष्ट किए बिना नहीं रहती जाते हैं, अनुभवमें वृद्धि होती जाती है, सुख-दुख एवं श्राशा निराशाका हृदयमें उदय हो जाता है-जात्पर्य यह वह उसकी सुन्दरता पर मंत्रमुग्ध हो जाना और कोई दास है कि ज्यों ज्यों प्रत्येक मांसारिक बातावरणमें हमारा क्षेत्र भी बन जाता है। यही तो कारण है कि हमारा प्रेम उत्तविस्तीर्ण होना जाता है, त्यों त्यों मन:स्थिति विकृत होती गेत्तर सांसारिक वस्तुबांकी ओर जो क्षणिक एवं अस्थिर जानी है, स्वाथीलप्सा तीव होनी जाती है. ईर्षा एवं स्पर्धा अथवा अनित्य हुश्रा करनी है, प्रबल होना जाता है। जब को स्पष्ट झाँकी हमारे मुम्बमण्डलपर झलकने लगती है। तक हम संसार में रहते हैं, सामारिक वस्तुओके प्रेम के संसारके प्राणियों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति, उनके पूर्व आधिक्य के कारण, उनकी प्राति के लिए हमारी इच्छाएँ, जन्मके संस्कारोंवश होती जाती है कि उनमें "तेरा-मेरा" आकांक्षाएँ एवं अभिलाषाएँ निरंतर वृद्धिगत होती जाती हैं, और उनका हमारे जीवन में प्रभाव न हो-उनसे के कलुाबत विचार घर कर लिया करते हैं। हमाग दूरत्व स्थापित न हो इसके लिए नाना प्रकारके एक नवजात शिशुकी ओर तो पुष्टिपात कीजिये। श्रायोजन भी मोचे और किये जाते हैं। उन चेतन अथवा जब वह अपनी माताके उरसे चिपककर दूध पीना चाहता अचेनन सामग्रियोंमसे जिनके द्वारा हमाग स्वार्थ साधन है, तब वह एक स्तन पर तो हाथ रखता है और दूमरेसे विशेष रूपसे होता है, जिनके द्वाग कुछ लाभ होने की मैं लगाए रहता है। क्योंकि, उसके यह भाव उस नवजात सम्भावना रहनी अथवा जिनके प्रति हमारा प्रेम अधिक सुकुमार अवस्थामें भी, पूर्वजन्मक संस्कारवश उसके हृदय ममता और अनुरागमय रहता है, उनका बियोग अथवा में विद्यमान रहते है कि मेरी वस्तु कोई दूसरा न हथियाले अमाव हमें असहा हो जाता है, यहाँ नक कि हम उनको यद्यपि वह इस मनोदशा अथवा मनोभावको उस अवस्था अपनी प्रांखोसे अोकल भी न होने देनेके लिए सतत में वचनद्वारा व्यक्त करने में अपनेको असमर्थ पाता है। चिन्तित एवं सजग रहते है। इस बातका भी उन सभी सहृदयाको अनुभव है, और किन्तु, रातदिन मोहममताएवं गमद्वेष परिणामोंके शिकार जिन्हें नहीं है वह कर भी सकते हैं कि जब हम किसी बमे हो कारण हम यह तनिक भी नहीं सोचनेका कष्ट उठाते बालक को रुपया पैसा दिलाते हैं, तब वह उसकी सुंदरता कि प्रकृति के नियम सदा सर्वथा सबोंके लिये समान होते है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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