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________________ २७२ अनेकान्त [वर्ष ६ अर्थनयका भी प्रयोग कर सकता है। जैनधर्ममें वचन प्रयोग कर एकान्तरूपसे अपभ्रंश भाषाकी निन्दा करके सुसंस्कृत के बारेमें अयनय और शब्दनयके इस विभागको अपना- भाषाके महत्वको प्रस्थापित करनेका प्रयत्न किया है उन्होंने. कर और उन दोनोंका उबिखित प्रकारसं ठीक ठीक समन्वय केवल सर्वसाधारण बहुजन समाजके साथ जबर्दस्त करके जैनाचार्योंने अपनी व्यवहारज्ञता तथा जैनधर्मकी अन्याय किया है, कि उन लोगोंके साथ भी यह वैज्ञानिकता व उदारताका काफी परिचय दिया है। कारण म्याय है, जो एक सुसंस्कृत भाषाके प्रकाण्ड जानकार कि हर एक प्रादमीके लिये अपना अभिप्राय दूसरों पर होते हुए भी उस सुसंस्कृत भाषासे अनभिज्ञ लोगोंके प्रकट करना जरूरी होते हुए भी सवंत्र और हमेशा सभी समक्ष उनकी भाषासे अनभिज्ञ होनेके कारण अपभ्रंश भाषाओंके पूर्वोक प्रकारसे शुद्ध प्रयोग करना असंभव है। अर्थात टूटी फूटी भाषामें अपना अभिप्राय प्रकट किया करते इस लिये जिन लोगोंने ग्याकरणादिसे परिमार्जित अर्यात् हैं। अस्तु ! यह अप्रकृत बात प्रसंग पाकर लिखदी गयी सुसंकृत और व्याकरणादिसे अपरिमाजित अर्थात अपभ्रंश है। यहां पर तो हमें सिर्फ इतना बतलाना है कि जैनधर्म में भाषाके बारेमें देवभाषा और म्लेच्छ भाषाका भेद पाद माने गये अर्थनय और शब्दनयका मभिप्राय व प्रयोजन वही है, जो हमने ऊपर प्रकट किया है। (क्रमशः) १"म्लेच्छो ह वा एव यदपशब्दः, म्लेच्छा मा भूमेत्यध्येयं २"यथैव हि शब्दज्ञाने धर्म एमपशब्दज्ञानेऽप्यधर्म:, व्याकरणम्" -पाणिनीय व्याकरण महाभाष्य अथवा भ्यानधर्म: प्राप्नोति।" --पाणिनीय व्याकरण भाष्य ['श्री भगवत्' जैन] ___'प्यार' हार है, जीत नहीं है! दुर्बलता है तड़पन मनकी, रोदन है, संगीन नहीं है। देकर प्यार, प्यार मिलना है दीपक जलता है, जलता हैसौदा फिर किस तरह शानका ? प्यार-भरा उसका पतंग भी। प्यारे पर प्राणोंको देकर, मिलने पर भी जलते दोनोंकरते हैं पालन सबानका ।। सुग्वी न होता एक अंग भी ।। फिर भी देखा गया-प्यारकी करता विश्व प्रतीत नहीं है। अत: मनाना पड़ता है यह-प्यार श्राग है, शीत नहीं है। प्यार - भरी दुनिया में हमने देख चुके लाम्वों टटेल करकभी विजय-उल्लास न पाया। भली-भाँनि इसका अन्नस्तल । मिली पराजय - सी नीरवता किन्तु श्राज-तक कौन पा सकाऔर व्यथिन, चिन्तित-सी काया।। प्यार - विटप - द्वारा मीठा-फल ? मदा रिचलती आँखें देखीं, नर यद्यपि नवनात नहीं है। प्यार श्रात्माका यथार्थमें घोर शत्रु है, मीत नहीं है। जहाँ प्यार है, वहाँ कलह हैजहाँ कलह है वहाँ कष्ट है। प्यार-कलहकी दुनिया में, यो मानवपन हो रहा नष्ट है। फिर भी यह चैतन्य हीन-सा, मानव-मन भयभीत नहीं है। 'प्यार' हार है, जीत नहीं है!
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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