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________________ किरण ८] नयोंका विश्लेषण २७१ स्थिर भाषाका ही प्रयोग हुमा करना है फिर भी प्रायः परिमार्जित होते हुए भी जहां तक अर्थप्रतिपाक्नका यह भी देखने में प्राता है कि जिन लोगोंको व्याकरणादि सवाल है वे ग्राह्य समझे जा सकते हैं। लेकिन व्य करणादिका परिज्ञान नहीं है वे भी भान, अभिप्राय दूसरोवर प्रकट की अपेक्षाये अपरिमार्जित भाषाका प्रयोग एक तो वक्ताके करनेके लिये भाषाका प्रयोग तो करते ही हैं। इस तरहसे जिये अपना अभिप्राय दूसरोंको समझाने में बहुत ही कम भाषा अपने मार दो भागों में विभक्त हो जानी है-एक उपयोगी सिद्ध होता है दूसरे ऐसे प्रयोगों द्वारा श्रोताओं भाषा वह है जो व्याकरणादिक नियमासे परिमार्जित रहनी को अर्थ निर्णयमें भ्रम या संशय पैदा हो जानेकी अथवा है और दूसरी वह है जो व्याकरणादिके नियमोसे अपरि- उनमें (श्रोताओं में) परस्पर विचारकी मात्रा बढ़ जानेकी मार्जित रहा करनी है। लेकिन भाषा चाहे व्याकरणादिवी भी संभावना बनी रहती है। इस लिये भाषाका परिमार्जन ररिसे परिमार्जित हो चाहे न हो, उसके द्वार। वक्ता अपना श्रावश्यक बतलाते हुए उसके लिये हमारे पूर्वजोंने भाषा अभिप्राय प्रकट करता ही है। इस लिये अर्थ-प्रतिपादनकी संबन्धी नियमों की सृष्टिकी है और लोकव्यवहारमें तथा दृष्टिसे अर्थनय और शब्दनय दोनों ममान माने गये हैं। खास तौरसे शास्त्रीय पद्धति में भाषाका प्रयोग करते समय विशेषता इतनी है कि शब्दनयोंमें मापाकी व्याकरणादिकी इन नियमोंका ध्यान रखना वक्ताके लिये धावश्यक बतअपेक्षा शुद्धि, अनिवार्य मानी गयी है. इस लिये इनको भाषा लाया है। पाणिनीय व्याकरण महाभारयमें' भाषा संबंधी की प्रधानताके कारण शब्दनय नाम दिया गया है और नियमोंके बहुनये प्रयोजन बतलाये हैं। अर्थनयों में भाषाकी व्याकरणादिकी अपेक्षासे शुद्धिकी भाव- यद्यपि नोंका मुगय प्रयोजन अर्थ-प्रतिपादन करना श्यकता नहीं समझी गयी है. इस लिये भाषाकी प्रधानता ही है. इस लिये जिस प्रकार ग्राम खाना मात्र प्रयोजन रहते के कारगा इनको अर्थनय नाम दिया गया है । "अर्थनया हुए खाये हुए ग्रामीकी गुठली गिननेसे कोई लाभ नहीं अर्थप्रधान'वात्, शब्दनया: शब्दप्रधान'वान" (अष्टसहस्त्री होता है उसी प्रकार अर्थग्रहणरूप मुख्य प्रयोजनके सिद्ध पू० २८७) प्यादि वचन इसी अभिप्रायको लेकर प्रयुक्त होते हुए भाषाकी शुद्धि-अशुद्धि पर विचार करना भी बनाकिये गये हैं। वश्यक समझना चाहिये। फिर भी जिस प्रकार प्रकृतिको लोकमें प्रायः देखा जाता है कि एक हिन्दी भाषासे ठीक रखनेकी गरजसे परिमित ग्राम खाना ही जिनको ठीक तौर पर अपरिचित मनुष्य हिन्दी भाषा भाषी लोगों भर्भर है उन लोगोंके लिये श्राम काते समय उनकी के समक्ष अपना अभिवाय प्रकट करनेके लिये टूटी-फूटी। गुठली गिनना भी आवश्यक हो जाता है उसी प्रकार हिन्दी बोलने लगता है, बस यही अर्थनय ममझना चाहिये। श्रोताओंको सुगमताके साथ पदार्थ सोध कराने के लिये तथा ममे अच्छी तरह मालूम है कि स्याहा-महाविद्यालय भाषा-श के अभावमें संभावित उनके भ्रम, संशय और बनारसमें इंगलिशकी शिक्षा देने वाले एक योग्यतम विवादको मिटाने लिये शुद्ध भाषाका प्रयोग करना भी बंगाली विद्वान हम सोगोंको पढ़ाते समय "कुत्ता दौडी" वक्ताके लिये भावश्यक है। तात्पर्य यह है कि वक्ताको "बिल्ली दौड़ा" आदि हिन्दाके वाक्यों द्वारा अंग्रेजीके वाक्यों हमेशा शब्दनयों द्वारा ही अर्थका प्रतिपादन करना चाहियेका अर्थ समझाया करते थे। आजकल भी बातचीत करते उसको अर्थ-प्रतिणदनके साथ २ भाषाकी शुद्धि पर भी समय बहुतमे लोग "हम जाता है" "हम जायगा" इत्यादि ध्यान रखना ही चाहिये। लेकिन जो वक्ता शुद्ध भाषाका प्रयोग किया करते हैं। ये सब प्रयोग व्याकरणकी दृष्टिसे प्रयोग करने में अपनेको असमर्थ पाते हए भी किसी समय अपरिमार्जित है। और इस प्रकारके वाक्य-प्रयोग जो व्या अर्थका प्रतिपादन करना जरूरी समझता है उस समय वह करणादिकी दृष्टिसे अपरिमार्जित होते हुए भी लोक म्यव शुद्ध भाषाका प्रयोगरूप शब्दनयके अभाव में पूर्वोक्त प्रकारके हारमें काम माते हैं उन सबको अर्थनयों में अन्तभूत करना चाहिये। तारण स्वामीके प्रन्धोंके विषय में भी यही बात १'एकः शब्दः सम्याग्ज्ञात: स्थगें लोके च कामधुग भवति" लागू होती है। अर्थात् उनकी भाषा व्याकरणादिकी दृष्टिसे रक्षोहागमलध्वसंदेश: प्रयोजनम्" इत्यादि ।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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