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________________ २७० अनेकान्त [ वर्ष ६ जो सर्वथा गलत मानने से इंकार किया है उसका प्राशय भित्र रूपसे प्रतिपादन करने वाले भिन्न २ वक्ताओंके भिन्नर यही है। यही बात माध्यात्मिक एसे निश्चय और व्यव- वचन हो सकते हैं। जायइया चयणवहा तावडया चेव हारकापरस्पर निरपेक्ष स्वतन्त्र रूपये प्रतिपादन करने वाले होंति यायवाया" [सम्मति ३-४७] इस गाथांशका यही वाक्योंके विषय में भीममझनी चाहिये। अभिप्राय हैं। इस तरस जैनधर्मके दर्शन में यह निष्कर्ष निकाला यषि लोगोंके मतभेदोंको भुला कर परस्परमें ऐक्य गया है कि एक ही वस्तु सैद्धान्तिक दृष्टिये अथवा श्राध्या- स्थापित करना इस नय वर्गका मुख्य प्रयोजन है और इस रिमक दृष्टिमे जब अनेक २ रूप सिद्ध होती है तो 'भुण्डे प्रयोजनको दृष्टिमे रख करके ही जैनधर्ममें अनेकान्तवाद, मुख मनिर्मिना" की लोकोक्ति अनुसार अपनी २ भिन्न २ स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद, द्रष्यादि चतुष्टयवाद तथा नामादि बुद्धिक अनुपार वस्तुके उन अनेक रूपोंमें एक एक रूपका चतुष्टयवाद अदि वादों का वस्तृत विवेचन किया गया है प्रतिपादन करने वाले भित्र २ लोगों भिन्न २ वचनोंगे परन्तु अफ्रमोम है कि स्वयं जैनी लोग ही इनका ठीक गलत माननकी अपेक्षा अधूरा मानना ही ठीक है, और तरहसे उपयोग नहीं कर सके हैं। यही कारण है कि जैनऐसा मान लेने पर जब यह निश्चित है कि अधूरा कथन दार्शनिक प्रन्थोंमें भी दूसरे मतोंके बारे में समन्वयात्मक अर्थका समग्ररूपसे प्रतिपादन करने में असमर्थ रहता है तो पद्धतिकी अपेक्षा खण्डनात्मक पद्धनिको ही प्रश्रय दिया अर्थका समग्ररूपसे प्रतिपादन करने के लिये भिन्न २ वचनों गया है और इमीका यह परिणाम है कि जैनधर्म भी दूसरे में एक वाक्यता प्रस्थापित करने की आवश्यता है। इसका धर्मोंकी तरह दुनियाकी नजरों में एकांगी ममदाय बन अर्थ यह हुआ कि मिस मित्र वत्ताओंके उन भिन्न भिन्न गया है। इनना ही नहीं, इसके अन्दर भी कई शक्तिशाली वचनोंको एकवाक्य अथवा एक महावाक्यके अवयव स्वीकार संप्रदायाँका पोषण हुमा और हो रहा है। करना होंगे और सब उन सभी बचनोंके समुदायरूप वाक्य (६) अथनय और शब्दनय अथवा महावाक्य प्रमाण कहे जावेंगे तथा भिन्न भिन्न उल्लिखित सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक और लोकसंग्राहक वक्तामोंक भिन्न भिन्न वचन उस प्रमाणके अवयव होजाने ये सभी प्रकारके नय श्रर्थनय और शब्दनयके भेदसे दो के कारण नय कहे जावेंगे। यह तभी हो सकता है जब कि प्रकारके जैनधर्म माने गये हैं। नोंका यह अर्थनय और एक ही वस्तुका भिन्न भिन्न रूपसे प्रतिपादन करने में शब्दनय रूप विभाग भाषा-शुद्धिकी गौमाता और मुख्यता निमित्त भून भिन्न भिन्न बुद्धि, प्रयोजन और द्रव्य-क्षेत्र काल पर अवलं वित है अर्थात् वक्ताके जिन वनों में भाषाशुद्धि या भावादिके माधारपर कायम की गयी भित्र भित्र रष्टियों की ओर जय नहीं देकर सिर्फ अर्थ के प्रतिपादनकी ओर पर उन वक्ताओंका लक्ष्य दिलाय।। जावे जैनधर्मकी 'स्यात्' ही लक्ष्य दि.। गया हो वे वचन अर्थनय माने गये हैं और की मान्यता अर्थात् स्याद्वाद" का यही प्रयोजन है। अर्थात- वक्ताके जिन वचनोंमें अर्थप्रतिपादनके साथ २ भाषाशुद्धिकी इस स्यातकी मान्यताके बलपर ही भिन्न २ वक्ताओंके और भी बचय दिया गया होवे वचन शब्दनय माने गये हैं। भिन्न २ वचनोंका समन्वय किया जा सकता है और सभी तात्पर्य यह है कि मानव-समाजमें भाषाका कितना वे सब वचन एक समन्वयात्मक वाक्य अथवा महावाक्यके महत्व यह प्रत्येक व्यक्ति जानता है। लोकमें मनुष्यके पाप अवयव अर्थात नय स्वीकार किये जा सकते हैं। अपना अभिप्राय दूसरों पर प्रकट करने के लिये भाषा ही येनय यद्यपि पूर्वोक्त सैद्धान्तिक और प्राध्यास्मिक नयों मुख्य साधन माना गया है और यह भाषा अर्थक प्रतिसं भिख नहीं हैं परन्तु अनेक बक्ताओं के मिस वचनोंका पादन करने में व्याकरण, कोष तथा शाब्दिक निरुक्ति एवं समन्वय करना ही इनका मुख्य प्रयोजन होनेके सबबसे इन परिभाषा आदिके नियमोंसे बांध दी गयी इस लिये को हमने 'नयाँका लोकसंग्राहक वर्ग" नाम देना ही ठीक लोकमें यद्यपि अधिकतर व्याकरणादिके नियमानुकूल व्यव. समझा है। और इस लिये इस वर्गके भेदोंकी यदि गयाना १-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । की जाय, तो वे उतने होंगे जिसने कि एक अर्थका भित्र २-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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