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________________ ब्रह्मचर्य ही जीवन है ले-चन्दगीर म जैन 'विद्यार्थी' ब्रह्मचर्य का शब्दार्थ तो ब्रझमें चर्या करना अथवा की भागेग्यतापर कुठाराघात करनेसे पचेगा। वह समझेगा पासासीमाना। यदि निश्चय नयसे देखा जाय, कि गर्भके दिनों में स्वस्खीके साथ भी कामसेवन करना तो आत्माको कल्याणकी ओर अग्रसर करके उसे मोक्षमार्ग महाअनर्थकारी -अपने पैदा होने वाले बच्चेके सारे पर लगाकर परमात्म-पदको प्राप्त कराने वाला एक ब्रह्मचथं जीवनको बर्बाद करना है, उसकी प्रारोग्यताका हरण करके ही है। परन्तु व्यवहारनय अथना बाय-दृष्टिसे इसका लौकिक उसे रोगी और अस्वस्थ बनानेका उत्तर दायित्व अपने सिर अर्थ 'वीर्य-रक्षा' है। इसी गिषय पर आज विचार करना पर लेना है। कहनेका तात्पर्य यह है कि जिगना अांधकसे है। ब्रह्मचर्य ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है, यह अधिक जीवन में ब्रह्मचर्यको महत्व प्रदान किया जायगा, महान् सत्य है। अधिकसे अधिक ब्रह्मचर्य को अपने जीवन उतनी ही अधिक सफलता उसके चरणोंके चेरी बनकर में स्थान देना प्रत्येक मनुष्यका परमावश्यकीय कर्तव्य है। रहेगी और उसके इशारेपर नाचेगी। बाहर जगह सफल जो जितने व्यापक रूपमें ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में उता- होगा। नहीं' अथवा 'असंभव' शब्द उसके शब्दकोषरेगा-उसकी अराधना करेगा, वह उतनाही अाधक बलवान, से निकल जायगा। दीर्घायु, तेजस्वी, मनस्वी और श्रोजस्वी होगा। वह प्रत्येक ब्रह्मचर्य ही सायन-सजीवनीबूटी है। एक बार प्राणी को अपने ब्रह्मचर्य के प्रोजसे अपनी ओर आकर्षित वैद्य-कविद्या-यारंगत धन्वन्तरि महाराज अपनी शिष्यमण्डली कर सकेगा। उसका एक एक शब्द प्रत्येक जीवपर, यदि को वैद्यक पढ़ा रहे थे। शिष्योंने पूछा कि महाराज! क्या अत्युक्ति पर नहीं हूँ नो, अजीवपर भी बिजली जैसा सफल कोई ऐसी औषधि भी है, जो सभी रोगों में अचूक हो। प्रभाव डालेगा। प्रत्येक व्यक्ति उमक लिये जीवन न्यौछार धन्वन्तार महागज ने उत्तर दिया, हा है। वह अचूक करने के लिए तय्यार हो जायगा । जो ब्रह्मचर्यका पूर्णरूपसे औषधि जो किसी भी रोगमें असफल न हो, ब्रह्मचर्य है। उपासक है, जो अखण्ड ब्रह्मचारी है अथवा जिसने ब्रह्मचर्य माजकल हमारे बहुनसे वैद्यगण अपनी औषधियों का को अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतार लिया है, वह तो देव । विज्ञापन करने के लिए, किमी भी रोगमें, यहातक कि वीर्य ही दोनाता है। उमकी मानवता देवताका रूप ग्रहण कर रोगों में भी ब्रह्मचर्य का परहेज नहीं बतलाते। इसीलिए लेनी। तमाम जगत उसके पीछे चलने लगता है। उसके रोगीको अपनी मूर्खतासे कहिए अथवा बेच देवता प्रसाद नेतृत्व में वह गौरव समझना है। हमारेबहुतसे बन्धु शायद से कहिए, निराशाका मुँह देखना पड़ता है। यह पढ़कर चौकेंगे कि ग्रहस्थ भी ब्रह्मचारी रह सकता है बहुतसे जिज्ञासु पाठकोंके हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न होगी और ब्रह्मचर्यका पालन बे-नोक-टोक कर सकता है। कि आखिरकार इस अमूल्य मृत्युञ्जय रसके वा महामंत्रके विवाहित पास्थ यदि केवल सुसंतान उत्पन्न करने के पवित्र जिसका गुण गान ऊपर इतने विस्तारसे किया गया है. विचारको सन्मुख रखते हुए, नियत समय पर काम सेवन सिद्ध करनेके कौन २ साधन है जिससे सुगमता और करे, तो उसके ब्रह्मचर्य में कोई विकृति नहीं पा सकती। निर्विघ्नता पूर्वक इसकी अराधनाकी जासके, अत: रक्षेपसे स्थ-प्राचारीपरस्त्रीमें तो मातृभाव रक्खेगा ही, परन्तु उनका कुछ वर्णन किया जाता है:स्वस्त्र में भी अतिरागका त्याग करके, केवल सन्तानार्यही सबसे पहले भोजन को लीजिए। प्रमचयकी श्रागधना स्त्रीप्रसंग करने की पढ़ प्रतिज्ञा करेगा। वह अपनी नी करने वालेको सदा सादा-सात्विक आहार करना चाहिए को अधिकसे अधिक ब्रह्मचर्य पालन करनेकी शिक्षा देगा। आहारका मनपर सीधा असर होता है। कहावत भी है कि गर्भके दिनों में पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करके गर्भस्थ बालक जैसा खावे अन सा होवे मन । गेहूँ, चना, जौ, मूंग,
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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