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________________ किरण ४] बुधजन सतमईपर एकदृष्टि परोपदेशे पाण्डित्यं मापा सुकरं नृणाम् । दुर्जन सज्जन होत नहिं राखौ तीरथ वास । धर्मे स्त्रीय मनुष्ठानां कस्य चिनु महात्मनःहितोपदेश मेलो क्यों न कपूर मैं हींग न होय सुवास ॥बुधजन।। मिनख जनमले ना किया, धम न ६.थं न काम । नाच निचाई नहीं तजै, जो पावै सत्संग। सो कुव अजके कंठमें उपजे गए निकाम ॥ तुलमी चन्दन विटप बसि विषनहीं तजत भुजंग ।।तुलसी धमार्थकाममोक्षाणां, यस्यकोपि न विद्यते । करि संचित को रो रहै,मूरख विलसि न खाय । अजागलस्तनस्यैब, तस्य जन्म निरर्थक्म हितोपदेश मावी कर मंडित रहै,शहद भील लै जाय ॥ बुधजन।। नदी, नम्बी, शृङ्गोनिमें, शस्त्रयानि नरनारि । स्वाय न खरचे सम धन, चोर मबै ले जाय । बालक अर राजान ढिग बसिए जतन बिचारिणबुध. पीछे ज्यों मधु मक्षिका, हाथ मलै पछताय । बृन्द नदीनां शस्त्रपाणीनां नम्बीनां श्रृङ्गिगां तथा । दुष्ट कहि सुनि चुप रहो बौले है है हान। . विश्वासो नैव कत्तपःखीपु, राजकुजेपु चहितोप० भाटा मारै कोच में हीटे लागे पान बुधजन॥ दुष्ट मिलत है: साधु जन, नहीं दुष्ट है जाय । कछु कहि नीच न छड़िए भलो न वाको संग। चन्दन तर को सपे लगि विष नहीं देत बनाय।। बुध० पाथर हारी कीच में उरि विगारे अंग ॥ वृन्द बद्धिवान् गम्भीरको संगत लागे नांहि । रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ाचे नांहि । ज्यों चन्दन ढिग अहि हिन.विष न हाय तिाह मादिवृ० शोभा पावै नाँहि मो.गज सभाक मांहि ॥धजन रहिमन् ज्यों उत्तम प्रकृन का कर सकत कुसंग । म ता शत्रुः पिता सरी येन बालो न पाटितः। चन्दन विष व्याप नहीं लिपटे रहन भुजंग ॥रहीम।। न शोभत भा मध्य हसमध्ये चको यथा ॥हितोपदेश विपता की धन राखिए धन दीजै रखिदार । ___ इनके अतिरिक्त विद्या, प्रशंमा, मित्रता, जुश्राआतमहितको छोड़िए धनदारा परिवार बुधजन निषेध. मांस निषेध, मद्य-निषेध, वश्या-निषेध, आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान रक्षद्ध नैरपि । शिकारकी निन्दा, चोरी निन्दा, परस्त्री संग-निषेध, प्रात्मानं सततं रक्षेदरैरपि धनैरपि ॥ हितोपदेश आदि पर अनेक उपदेशात्मक अनुभव पूर्व उत्तम उपयुक्त पद्योंकी परस्पर तुलना करनसे स्पष्ट ज्ञान दोहोंकी रचनाकी है । जिनके पढ़नेसे मनुष्य के विचार होता है कि पुरान कवियोंने एक दूसरेके भावों और निर्मल होकर आत्मा शुद्ध हो सकती है । यदि उन विचारोंका बहुत कुछ अपनाया है तथा कई कवियोंने दोहों को यहां पर लिम्बा तो लेखका कलेवर बहुत बढ़ तो एक दूसरेकी युक्तियोंको अपनीही युक्ति बना लिया जायगा । अतः इस सम्बन्धमें इतनाही कहना पर्याप्त है। अनुकरण करनेकी प्रवृत्ति अनादिकालसे चली होगाकि कविवर बुधनजीने अपने प्रतिपादित विषय अरही है। यही बात बुधजन में भी मिलनी है, उन्होंने का अच्छा विवेचन किया है। भी दसगेका अनुकरण किया है। उन्होंने हितोपदेश विराग भावनाके वर्णनमें तो कविन कमाल के कई श्लोंकोका हिन्दीके पद्यों में सम्भवतः इमी दृष्टि दिखाया है। इस भावनामें कविने संसारकी असारता कोणमे अनुवाद कर डाला है कि लोगोंका संस्कृतकी का हुबहु चित्र दींचकर अपने वृहद्ज्ञान, अपूर्व अनुओर भुकाव कम है, और संस्कृत साहित्यके संचित भवका परिचय दिया है। आप दोहोंको पढ़ते जाइए ज्ञानका उपार्जन करनाभी मनुष्यों के लिए अत्यन्त कबीरक पद्योंका भानन्द श्राने लगेगा। इस भावना आवश्यक है; क्योंकि भारतीय साहित्यका अधिकांश के वर्णनमें कांवने अपने अध्यास्म ज्ञान, श्रात्म अनुखजाना संस्कृतमें ही है। भति और मनुष्य जीवनकी अस्थिरताका वर्णन कर उपदेशाधिकारमें भी विके भाव और विचार के जैनदर्शन और सिद्धान्तका सार उत्तम रीतिसे अन्य कवियोंसे मिलते जुलते ही हैं जैसे: सममानेका प्रयास किया है:
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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