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________________ " बुधजन सतसई पर एक दृष्टि " (लेखक माणिक्यचन्द्र जैन, बी० ए० रेनवाल ) ...... विदद्वये परिन्त भदीचन्द्रजी बज (बुधजन) का नाम जैन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है । आप अपने समय प्रगल्भ प्रतिभा सम्पन्न विद्वान एवं माननीय कवि और लेखक थे । आपकी शास्त्र बाँचने तथा शङ्का समाधान करनेकी शैली अत्यंत रोचक और निराली थी । आपकी कविता का विषय भव्य प्राणियोंको जैन सिद्धान्त समझाना तथा प्रवृत्ति मार्ग से हटाकर निवृत्ति मार्गपर लगाना है । आपके बनाए हुए चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं । १ तत्वार्थ बोध, २ बुधजन सतसई, ३ पंचास्तिकाय, ४ बुधजन विलास | बुधजन- सतसई की रचना सम्बत् १८७६ में हुई । रचनाकाल के सम्बन्ध में स्वयं कविने निम्न दाहा लिखा है । संवत् ठारा असी एक बरसतें घाट | जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, इवै सतसई पाठ ॥ सतमई पढ़ने के पूर्व मैं यह सोचता था कि इस सतमई में या तो विहारी सतसई की भांति श्रृङ्गार रस का निर्भर बह रहा होगा या वृन्द सतमई की तरह नीति के दोहोंकी भरमार होगी; पर मेरी धारणा असत्य निकली। इस सतसई में ४ प्रकरण हैं (१) देवानुरागशतक (२) सुभाषित नीति (३) उपदेशा-धिकार और (४) विरागभावना । मैं इस पुस्तकको सन्मय होकर पढ़गया । देवानुराग- शतक में कवि बुधजनजी महात्मा सूर और तुलसीके रूपमें दिख लाई दिए। इसमें तुलसीकी विनय पत्रिका और सूर की विनय वाणीके धन्दोंकी झलक दिखलाई पड़ी । 'तुसीकी भक्ति पद्धतिका बुधजन पर प्रभाव पड़ा है, ऐसा मेरा विचार है । अपने कृत्योंकी आलोचना करना तथा भगवानके महात्म्यको बतलानाही तुलसी की भक्ति पद्धतिका सार है। य हयात बुधजनजी के दोहों में दृष्टव्य हैः मेरे औगुन जिन गिनो, मैं अंगुन को धाम पतिन उद्धारक 21प हो, करो पतिन को काम | बुधजन प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो । समदर्शी है नाम तिहारों चाहो तो पार करो || सुरदास "राम सों बड़ो है कौन, मों सो कौन छोटों |१| राम-मों खरो है कौन. मोसों कौन खोटी " -तुलसी प्रभुके महत्वको सामने होतेही भक्तके हृदय में लघुत्वका अनुभव होने लगता है । उसे जिस प्रकार महत्व वर्णन करने में आनन्द आता है उसी प्रकार अपना लघु वर्णन करनेमें भी । सुभाषित नीतिपर कबिने २०० दोहे लिखे हैं । इनसे कविके अपूर्व अनुभव और ज्ञानका पता लगता है । इनकी तुलना वृन्द, रहीम तुलसीदास और कबीर के दोहोंस पूर्णतयाकी जासकती है। इतनी बात अवश्य है कि नीति के द होंकी रचना करते समय प्रायः इन सभी कवियों का आधार पंचतन्त्र रहा हो । बुधजनजीक नीति के दोहे हितोपदेशके श्लोकोंका अनुवाद मात्र मालूम पड़ते हैं। पर यह बात इन्हीं पर लागू नहीं है, उपयुक्त प्रायः सभी कवियोंके सम्बन्ध में कही जा सकती है । उदाहरणार्थ: एक चरनहूँ नित पढ़े, तौ का अज्ञान । पनिहारीकी लेज सों, सहज कटै पासान। बुधजन || करत करत अभ्यासके, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात तें, सिल पर होत निसान || वृन्द ।। महाराज महावृक्षत्री, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल भासे नतौ, छाया तौ रह जाय || बुधजन || सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः । यदि दैवात् फले नास्ति, च्छाया' केन निवार्यते ॥ हितोप० पर उपदेश करन निपुन ते तो लखे अनेक | करै समिक बौले समिक जे हजारमें एक || बुधजन || पर उपदेश कुशल बहुतेरे । तुलसी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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