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________________ अनेकान्त [वर्ष ६ को सुतको हैतिया, काको धन परिवार । निन्द काम तुम मत करो, यहै प्रन्थको मार ॥ आके मिले सराय में, विछरेंगे निरधार ॥ प्रन्थके मार तथा कविके उद्देश्यसे ज्ञात हताहै परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । कि कवि आदर्शवादी है। मंसारी मनुष्योंको सन्मार्ग छलबल करि क्या हुन बचे, काल झपट ले जाय ॥ एवंम् निवृति मार्गपर लगानाही कविके जीवनका देहधारी बचता नहीं, सोच न करिए भ्रात । उद्देश्यो । बुधजनजीके दोहोंके साथ साथ हितोपदेश तन तीन जिगे रामसे, राबनकी कहा बात ।। के श्लोकों तथा वृन्द, रहीम और तुलमीके दोहोंको माया मो नांही ग्या, दशरथ लछमन राम । उद्धृत करनेसे बुधजनजीके काव्य सामर्थ्यका पूरा तू कैसें रह जायगा, पाप का धाम ।। पता लग जाता है। हिन्दीमें रहीम,वृन्द और बिहारी इमी प्रकरणमें समता और ममताका उल्लेख सतमई आदि ग्रन्थोंको अच्छा स्थान प्राप्त है । पर, करने में कविने अपनी क्लार्क चार चांद जड़ दिए। जैन साहित्यकागेके प्रमाद और आलस्यके कारण जैन आचार्यों और तीर्थकरो, ऋषियों, भद्रपुरुषों और बुधजन सतसईको हिन्दी में अभीतक कोई स्थान नहीं पवित्र आत्माभोंके दृष्टान्त देकर वएनीय विषयकी मिल सका । यह नियों के लिए, मुख्यतया जैन स्पष्ट व्याख्याकी है। उन दृष्टन्तोंसे काव्यमें राचकता माहित्यकारोंक लिए अत्यंत खेदकी बात है। उपर्युक्त और सौन्दर्य तो ही गया है. साथ ही में जैन वर्णनसे यह स्पष्ट होजाता है कि कविवर बुधजनजी सिद्धान्तोंकी व्यापकताकाभी अच्छाविश्लेषण हुश्राहे। रहीम और वृन्दकी श्रेणीके कवि अवश्य है। और अनुभव प्रशंसा और गुरु प्रशंसापरभी कविने अपना इनकी सतसई वृन्द सतसईस पूर्ण समता रखती है। ज्ञान और अनुभव प्रदर्शित किया है। दोहे बड़े बुधजन सतसईकी भाषा ठेठ हिन्दी है, पर कहीं ही रोचक और मनोहर हैं। गुरूका महत्व बतलाते कहीं प्रान्तीय (जयपुरी) भाषाका पुट भी है। कहींसमय कवि हमारे समक्ष महात्मा कबीर के रूपमें कहीं तुक मिलानेमें छन्दो भङ्ग दोष भी आगया है माताहै। प्रन्थके अन्त में कविने अपनी रचनाकासार अथवा प्रति लेखकोंकी उसमें कुछ गलती है। अन्तमें इस प्रकार बतलायाहै: यह कहना उपर्युक्त होगा कि बुधजन सतसई ०क भूख सही दारिद सही, सही लोक अपकार। पढ़ने और संग्रह करने योग्य ग्रन्थ है। दृष्टान्त देकर वरना सकता माहित्यकाक जाता है कि कविवर और - मृत्यु-महोत्सव "तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी ।"-सूरचन्द (ले..-श्री जमनालाल जैन विशारद ) "मृत्यु। मृत्युका नाम सुनता ही मनुष्य कोपने लगता है, लीजिए उस पर वन ही गिर जाना है-वह निराश, इनाश, धनि लगता है और झलगकर उमका उच्चारण करनेवाले निरुत्साहित तो हो ही जाता है परन्तु 'अन्दर ही अन्दर पर पैनी निगलने लगता है। मृत्युका नाम सुनना वह क्रोधको जन्म देकर प्राग-बबूला भी हो उठता है। यही अपना अपमान समझता है, उसे सुनकर वह अनिष्टकी मनुष्य, जो मृत्युके नामको सुनकर या उसका प्रागमन जान प्राशंकासे विचलित हो उठता है और यदि किसी शुभकार्य कर इतना अस्थिर हृदय हो उठता है, वही जन्मका नाम के मादिमें उसे सुननेका सौभाग्य प्रात हो गया तो समझ सुनकर, हषोत्कुल हो, घर-घर बचाई मांगते फिरता, मंगल
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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