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________________ किरण ३] मानवताके पुजारी हिन्दी कवि ११५ स्मरण करें । उनको पवित्र जन्म तिथि, कर्म तिथि तथा कुछ नहीं बिगाद सकती, और निकट भविष्यमें सम्भावित स्वर्गमन तिथि पर उनके यशको गाकर उनके गुणों और भावी भारतीय युद्ध के समय भी हम केवल अहिंसा रूसी त्यागकी प्रशंसा करें, तथा उन्हें महामन्त्र समझकर अपनावें तलवार और प्रेम रूपी दालके अवलम्बन पर उमी सुख और इन्हींगे हम अपने गष्ट्रीय, धार्मिक तथा सामाजिक शांतिका रसास्वादन कर सकते हैं. जिसे विपके कोने-कोने में प्यौहार समम । यदि हम 'विश्वको अहिंसाका सन्देश' इस पहुंचा देनेकी हमारी उत्कट इच्छा है। रूप में पहुंचा सकेंगे, तो संसारकी कोई भी शक्ति हमारा मानवताके पुजारी हिन्दी कवि (श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') 'अनेकान' के अगस्त-अंकमें एक लेख छग है- 'अंनल' इसी विद्रोहके कांव हैं। उनकी 'अपग जना' में 'हिन्दीके जैन-कवि' । लेख ३ पृष्ठोंका है, पर ३ वाक्य जी विरह, बेचनी. क्रन्दन और प्रेम है, वह क्या व एक उद्धत करने से उसका सार मामने श्रा जायेगा। प्रेमिका के प्रति एक निगश प्रेमीका ही हाहाकार है हमारे १-" च में आज हिन्दी-साहित्यके भीतर शब्द-क्षेत्रमें समाजने अपनी जर्जरनाके युगम, मानवकी स्वतन्त्रताका कतिग्य कविठोंको छोड़कर अश्लीलता अं.र थरहरणकर, मानव और मानव के बीच जो नियमोंकी दीवार गुण्डत्वकी भरमार होरही है।" खड़ी करदी है, क्या उसकट टागनेकी प्रतिध्यानसमें .-"जब हिन्दी साहित्यमें उच्च माने जाने वाले नहीं है? फिर श्राज 'अंचल' अपगाजाका नहीं, किरण कविगण पाशविकताका प्रचार करने में तल्लीन वेलाका' कवि है, जहां वह ललकारता हैहैं, ता जैन कविगण देवत्वकी महत्ताको भूल "संघोंकी लहरापर तिर तरा अगार तरा चलता, नहीं गये हैं।" असफल विद्राहों के सिरपर, तेरी नूनन ज्वाला जलती, ३-"आज हिंदी माहित्य में...............गीत............. इस प्रेमकला संमृतिका क्षयहो,जयहो युगकी माँगड़ी, साहित्यको कलंकित कर रहे हैं, परन्तु वे जैन होयहसमाजचिथड़ेचिथड़े,शोषणपजिसकी नींवपड़ी" कवि ही हैं, जिनकी आध्यात्मिक गंगा निरंतर 'अंचल' की अपराजिता श्राज प्यारके चोचले नहीं प्रगहन ही है।" रखती। अाज तो वह एक नये ही रंगमें - . इन 'गुए इत्व' फैलानेवालोंमें लेम्बकने श्री अंचलका ____ "भर खाई हो तप्त कठिन अंगोमें तूफानोंका पासव, कई बार उल्लेख किया है। मच यह है कि लेखक समान माज तुम्हें क्या विश्व बदलना, भाज तुम्हें क्याकठिन प्रसंभवा और साहित्यकी विचारधाराश्रोमे अपरिचित है। उसे पता माज तुम्हारी रणभेरीमें घर घरसे निकखें अंगारे, नहीं है कि हिन्दीके कवि गन थोड़से दिनों में कहाँसे कहाँ माज बंधे ज्वालागिरि खुलते इंगितपर सुन्दरी! तुम्हारे !" प्रागये हैं और आज रीतिकालीन शन्दोके व्यायामसे दूर अाजके दुखी संमारकी उपेक्षापर स्वप्नों के महल खड़े एवं निर्जीव देवत्व के स्तुनिगानासे ऊपर; मुक्त मानवताकी करनेवालोको उसने कैसी फटकार बनाई हैपुण्य पताका वे अपने सुदृढ़ हायोंमें थामे हुए हैं। "पान किस अन्तर्मुखी गतिहीनता बद्ध कविगण ! हमाग समाज श्राज बिद्रोहका केन्द्र बनना जारहारे या कुरेवा ही करेंगे सोशळे अपने समय। और कवि उमका प्रतिनिधित्व सम्भालने में लग चुके है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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