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किरण १०-११]
गुरुदक्षिणा
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"जिहाछेद दागा! यह कैसा शास्त्रार्थ है बेटा और टेके बैठ गई। नारद के साथ ?" मां जिज्ञासु हो उठी।
"अाजकल उसे अपनी विद्वत्ताका बड़ा घमंड हो गया प्रथम प्रहरका समय था प्रतीहारीने निवेदन किया है । कहता है 'श्रष्टव्यम्' का अर्थ है तीन वर्ष पुगने गुरुपनी पधारी है। वसु प्रमुदित हो उठा। गुरुपत्न का ब्रीहिसे पूजा करना चाहिये। मैंने कहा-नहीं अज शब्द दर्शन देना मौभाग्यकी बात थी। श्राज्ञादी सादर लिवाशब्दका अर्थ होता है बकरा । बस झगड़ बैठा। कल गजा लाश्री' स्वयं भी सेवा के लिये तैयार हो गया। गुरुपत्नीने वसु इसका निर्णय करेगा। पिताजाने भी ऐसा ही कहा था प्रवेश किया। 'मो' कहता हुश्रा वसु चरणों पर गिर पड़ा। मां!" पर्वतने अपनी निर्दोषिता प्रकट की।
माँने श्राशीर्वचन दिये। उच्चासन देकर वसुने कुशल "तूने यह क्या किया पर्वन ?" मां विकल हो उठी। पछी । माने वाञ्छनीय उत्तर दिये। "क्यों मा" पर्वत मांके मुखकी ओर निहारने लगा। "श्राज कैसे कष्ट किया मां?" वसुने नम्रतापूर्वक प्रश्न
"बेटा तुमने भूल की। नारद ठीक कहता है । तुम्हारे किया। पिताज'ने भी ऐसा ही कहा था। जब तुम पढ़ते थे मैं मुगार अपने बेटेको देखने के लिये" माने मुस्कुराते हुए करती थी। मुझे अच्छी तरह याद है" मा दुःखित हो उठी। उत्तर दिया। "क्या माँ " पर्वन अप्रतिम हो बोला।
वमु लजित हो गया। उसे कोई उत्तर न सूझा । में "उन्होंने वही कहा था जो नारद कहता हे !" मांका मिटानेके लिये बोल पड़ा-"मैं स्वयं उपस्थित हो जवाब था।
सकना था।" "माँ" पर्वतका चेहग फक पड़ गया।
माँ बोली- नहीं गजाका समय अमूल्य होता है। "बेटा, कितनी भारी भूल की है तुमने ! तुम्हारे पिता मैंने सोचा मैं स्वयं ही तुमसे मिल लूं'। कहते थे नारद तीक्ष्ण बुद्धि है। बिना समझे ही तुम झगड़ा "यह आपकी कृपा भी मां!" वसुने कृतज्ञतासे कहा मोल ले बैठे। दण्डविधान भी अपने ही द्वारा कर लिया" "मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।" मांके नेत्रोंमें प्रांसू छलकने लगे।
"मुझे तेरा स्नेह ही बहुत है उसु, और कुछ न "किन्तु मां शास्त्रोंमें तो..........." पर्वनने सिर झुकाये नाहिये" माने उपेक्षा की।
"फिर भी मां मेरा कर्तव्य............."वसुने दीनता "वल्हेमें जाय तुम्हारे शास्त्र, तुमने कुछ नहीं पढ़ा" प्रगट की। मांने रोषांमश्रित वाणीमें प्रताड़ना की।
"तुमने अपना कर्तव्य निबाहा ही कब है मेरी गुरु"फिर मां पर्वतने दीनता प्रगट की।
दक्षिणा भी तो नहीं दी" मांने मुस्कराते हुए कहा। "फिर" माँ दो क्षण चुप रही। "वसु निर्णय करेगा! वरुने समझा माँ परिहास कर रही है बोला-'सभी यही न अच्छा! मां ने धीमेसे कहा ।
कुछ आपका ही तो है!" 'क्या माँ? पर्वतने प्रश्न किया।
___मांको यदि पर्वतकी प्राणरक्षाकी अपेक्षा न होती तो "कल मैं प्रातः ही वसुके पास जाऊंगी और किमी सचमुच यह परिहास दी था। वसुके अनेक निवेदन करने तरह तेरी रक्षाका उपाय करूंगी। पर्वत मेरा बेटा है, उस पर भी मौने कभी गुरुदक्षिणा स्वीकार नहीं की थी। किन्तु का अपमान मेरा अपमान है, मेरे पतिका अपमान है। आज अपने पुत्रकी मान रक्षा की भावनाने उस वाक्यको उसकी मृत्यु मेरी मृत्यु। मेरा बेटा 'पर्वत'। मैं उसके असहनीय सत्य बना दिया। मांने सरलतासे काम बना लिये सब कुछ करूंगी। धर्म अधर्म कुछ न विचारूंगी। लिया। तार्किककी पत्नी श्राने दावपेंच में दक्ष निकली। पर्वत जा तू ! कल सभामें तेरी विजय होगी! जा बेटा !" बोली-''देखो वसु ! अाज सचमुच मैं गुरुदक्षिणा लेने
पर्वत सिर झुकाये चला गया। माँ हाथ पर मस्तक आई हूँ"।