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अनेकान्त
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वर्ष ६
दिया है। पंडितजीकी संकोचमुद्रासे ऐसा ज्ञात होता था, भाषणकी हार्दिकता और पशिडतजी की तम्मयता मामो उन्होंने कोई भारी अपराध किया है और भाज इस उस स्थल पर पहुंच कर तो सचमुच अनुपमेय ही हो विशाल-पंचायत में उसका निर्णय होने वाला है। उनकी उठ, जब उन्होंने कहा-हर्ष भी शोककी तरह भारमाका मुखमुद्रा देख कर श्री लालचन्दजी एडवोकेटने हम कर शत्र है। मेरी प्रार्थना है कि इस सम्मानसे मुझे हर्ष न हो। श्री प्रभाकरजीसे कहा था-"पण्डितजी यहाँ बैठे है जरूर पर भीतर ही भीतर तुम्हें कोस रहे होंगे कि कम्बस्तने
और इस प्रार्थनाके बाद जब उन्होंने कहा कि मैं इस
सारे मान-सम्मानको, जो प्रेमवश मापने मुझे दिया, अपने को फंसा दिया है।"
प्राराध्यदेव श्री समन्तभद्रको ही समर्पित करता है, तो उत्सवका कार्य-क्रम पहले दिन ५ घंटे तक चलता रहा।
मुझे लगा कि इस मान सम्मानके साथ उन्होंने अपने पाप कई हजार भावमी बबी उत्सुकत के साथ सुनते रहे। अन्त को भी जैसे अपने इष्टदेवके चामि अर्पित कर दिया है। में परिडतजीसे भी अपने विचार प्रकट करनेके लिये अनुरोध किया गया।
इम समय पण्डितजीके दो विभिन्नरूप एक साथ मेरे
सामने थे। एक जनता द्वारा सम्मानके ऊंचे शिखरपर अब पपिडतजीकी बोलनेकी बारी थी। वे धीरे २
प्रस्थापित महामना जुगल किशोर और दूसरे अपने गुरु श्री खड़े हुए। जैसे उन पर किसीने बड़ा भारी बोझ लाद
समन्तभद्रके चरणोमें लीन साधक जुगल किशोर । निश्चय ही दिया हो, जिसे वे उठाने में तो असमर्थ है ही--परन्तु
पहलेसे दूसरा महान था और सच तो यह है कि साधकने फैंकने में भी बात है। ये कुछ क्षण बड़े ही मर्मस्पर्शी थे।
. ही महामनाकी सृष्टिकी थी। जनता कुछ उनके मुंहसे सुननेको उत्सुक थी और पण्डित जी हाथ बाँधे मंच पर खद थे। उनका बृद्ध शरीर कांप-सा यह उनकी गम्भीर साधनाका ही फल था कि जीवनके रहा था। संकोचका ऐसा विस्मयकारी पवित्ररूप मैंने भाज- प्रारम्भमें अपने जिन विचारों के कारण वे जिन बन्धुओंके तक नहीं देखा था !
द्वारा प्रवल विरोधके भाजन हुए थे अपने उन्हीं विचारों के
साथ. उन्ही बन्धुभोंके द्वारा, इसी जीवनमें, अपने ही घरमें. मैंबर रहा था, कहीं चेचमा-याचना करके ही न बैठ
__ समारोहके साथ सम्मानित हुए। इस प्रकारका सौभाग्य
.. जायें। परन्त पंडितजीने जो उस समय संक्षेपमें कहा बाबा m aan: म विद्वान । वह उन्हींके योग्य था। धीरे धीरे, अत्यन्तसंपतरूपसे, वे एक एकशब्द, मोतियोंकी काहीसे गुन्ध, कह रहे थे। इस असाधारणा सम्मानको पाकर भी जो नन है. संकोचने उनके कण्ठ स्वरको इतना भावप्रवण कर दिया निरभिमान है, वही तो प्रकृतिके द्वार पर महामानवताका था कि इस समय सारे महोत्सवका ही वातावरण प्रेम और प्रसाद पानेका अधिकारी है। करुणाके रससे भीगा-भीगासा हो रहा था। यह भाषण मेरा मस्तक श्रद्धासे उस सन्तके सम्मानमें झुक गया मौखिक था। बिना लिखा था, इसीसे मौखिक था, अन्यथा और तभी मैंने देखा, समारोहमें समुपस्थित हजारोहदय यह एक वम हार्दिक था। भाषणोंका यह युग है. पर इतना स्नेह, श्रद्धा और उत्सुकताकी त्रिवेणी में अवगाहन कर गदहार्दिक भाषण सुनना इस युगका अमूल्य अवसर ही था। गद हो रहे हैं।
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