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________________ "कृपण, स्वार्थी, हठयाही" मुख्तार साहब (श्री कौशलप्रसाद जैन, व्यवस्थापक भनेकान्त सहारनपुर) यह अंक निकालनेका निश्चय होते समय मुख्तार कि मेरे हृदयमें उनके प्रति सुनी हुई धारणा हद साहबने यह शर्त भी लगाई थी कि अपने व्यक्तियोंमें होती गई। से उनपर इस अंक में कोई एक शब्द न लिखे पर अब जब कि यह अंक तैयार होगया है और भैय्या 'प्रभाकर . इसी वर्ष वीरशासनजयन्ताके अवसर पर वीर सेवा मन्दिरकी मीटिंगमें जब 'अनकान्त' के तिमाही जी'को यह महसूस हुआ कि मुख्तार साहचक जीवन होनेका प्रश्न आया और बा. छोटेलालजीने उसे का अभी तक एक कोना और भी ऐसा रह गया है मासिकही रहने देने लिये मुझे अपनी पानरी जिसपर प्रकाश पड़ना आवश्यक है तो उसके लिखने सेवाएँ 'अनेकान्त' को देनकी आज्ञा दी तो मैं बड़ा के लिये उन्होंने मुझे आदेश दिया। झिझका और मैंने अपने दिलमें सोचा कि मेरे जैसे अपने सार्वजनिक जीवनके प्रारम्भसे ही मैं प्रायः तेजमिजाज, उमडल और नियन्त्रण बर्दाश्त न कर यह सुनता रहा हूँ कि मुख्तार साहब बडे कृपण, सकने वाले व्यक्ति के साथ मुख्तार साहबकी कैसे संकुचित मनोवृत्ति वाले, हठपाही और स्वार्थी हैं। पटेगी, पर बायूछोटेलालजीके आदेश और 'अनेकसौभाग्यस भारतवर्षका भ्रमण समाप्त करने के बाद न्त' के मासिक रहनेकी प्रबल इच्छाक कारण मुझे मेरा सहारनपुर रहना अनायास ही निश्चित् होगया। चुप होजाना पड़ा। सहारनपुर रहते यह निश्चित ही था कि मैं उनके उस समयसे अब तक मैं उनके अधिकसे अधिक सम्पर्क में थाऊँ, अतः यहाँ भी और दो एक बार वीर संसर्गमें हैं और मुझे उनके जीवन और विचारोंको सेवामन्दिरके उत्सवों तथा अन्य अवमरोंपर भी बारीकीसे देखनेका अवसर प्राप्त हुआ तो मैं इस सरसावा जानेपर यह मालूम हुआ कि वहांके व्यक्ति निश्चयपर पहुँचा है कि वास्तवमें लोगोंकी उस धारणा भी उनसे नाराज हैं और शिकायत यही कि यहाँके का कारण दृष्टिभेद है। सामाजिक कार्यों में सहयोग और सहायता नहीं देते आदि। वास्तवमें मुख्तार साहबके भी कुछ जीवन-सिद्धा न्त हैं और उन सिद्धान्तोंके पालन करने के अवसरपर इसी बीचमें एक बार मुख्तार साहबने मुझे अपने प्रियमे पिय व्यक्मि भी भित्र जाने । 'अनेकान्त' के टाईटिलके नवीन डिजाइन और ब्लाक बनानेका भार सौंपा और ब्लाक बनाने वालोंकी 'अनेकान्त' के व्यवस्था सम्बन्धी कार्य के इन उपेक्षासे वह समयपर नहीं आसका तो मुख्तार साहब पांच छः महीनों में यह बात नहीं है कि मेरा उनका ने मुझपर भी नाजायज तकाजा किया जिससे मैंने भी कहीं मतभेद न हुआ हो।हुमा है और काफी हुआ उन्हें बड़ा स्वार्थी और बदलिहाज समझा। इसी है, पर उस मतभेदमें मुझे यह याद नहीं पड़ता कि तरह मैंने अपने पड़ौसके प्रेससे उनके प्रन्थ और उन्होंने कभी हटणाही या संकुचित मनोवृत्तिका परि'अनेकान्त' के छपने की व्यवस्था करादी थी तो देखा चय दिया हो । उस मतभेदमें बात उनकी चाही हुई कि उस प्रेससे ही अकसर उनका झगड़ा रहता है। इस तय हुई हो या मेरी, पर वह हुई है सर्वसम्मतिसे। प्रकार घटनाक्रमसे सारे ही साधन ऐसे जुटते रहे हम दोनोंमें किसीके वित्तमें भी कोई बात नहीं रही है
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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