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________________ २७६ परम्परागत प्रथा भी कार्य कर रही है जो घातक हानिकारक है । अनेकान्त तथा [ वर्ष ६ परन्तु यह नितान्त असम्भव है कि उनका अभाव ही हो जाय—वे विनष्ट हो जायें अथवा शून्य में विलीन हो जायें । सो, हमें अब देखना यह है कि मानवका धर्म क्या है, जिसका कि उसके जीवनसे श्रमेद्य सम्बंध है । मानव एक चेन्न प्राणी है अर्थात् वह निर्जीव नहीं, सजीव है। दूसरे शब्दों में मानव, आत्मा, जीव तथा चेतनता यह सब पर्यायवाची शब्द हैं। हाँ, तां तात्पर्य यह कि श्रात्मा या चेतनका स्वभाव क्या है, यह मुख्य प्रश्न है । उसका धर्म प्रथम तो यह है कि वह सनत चेतनामय ही रहती है आत्मा न मारने से मरती है, जलाने से न जलनी है, न काटनेसे कटती है अर्थात् कभी भी किसी भी अवस्था में वह चेतनामय ही रहेगी, उसमें जड़ता नहीं सकती। दूसरे वह अनन्त चतुष्टय'त्मक भी है अनन्त दर्शन. ज्ञान, सुख और वीर्य उसमें विद्यमान रहते हैं। इन पर पर्दा श्रारण पड़ा रहने के कारण इनका प्रकट अनुभव नहीं किया जा सकना। जिस प्रकार सूर्य प्रखर प्रकाशमान् है और सदा उसी दशा में रहता है तथापि उस पर हम यह देखते हैं कि जिस ममय घने घन छा जाते हैं उस समय दिवाकरका दैदीप्यमान प्रकाश यहां तक नहीं पहुँचता और न हम उसे देख ही सकते हैं, उसी प्रकार श्रात्माके उन गुणों पर भी जब कमका - कार्मण शरीरका - आवरण पड़ जाता है तब हम भी उसके गुणों को देखने में असमर्थ हो जाते हैं। जब यह प्रावरण दूर हट जाता है और वह निर्मल जलबत् निरावरण हो जाती है तब आपसे आप उसके गुण जो प्रकट दिखाई नहीं देते थे, प्रकाशित हो अपने आलोक से सारे जगतको आलोकित करने लगते हैं । आज धर्म शब्द इतना सस्ता हो गया है कि चाहे जहाँ, उचित या अनुचित स्थान पर उसे प्रयुक्त किया जारहा है। कोई मम्प्रदाय अथवा समाजको ही धर्म कह बैठना है तो कोई उसे पुण्य, शुभ अथवा लाभके अर्थ में ही व्यव हग्त करते हुए दिखाई देता है । श्राज, लोग उसे अतिशय संकीर्ण अर्थमं व्यवहृत कर उसके नाम पर आपस में खूनखराबियाँ भी करने लगे हैं। इसी कारण कई व्यक्ति तो ऐसी भीषण घटनाओ से महन होकर धर्म के नाम पर होने वाले घोर अत्याचारोंको देख कर धर्म और ईश्वर श्रादिकी कटुसे कटु शब्दों में निंदा, भर्त्सना तथा श्रलोचना भी करने लगे और यहाँ तक कहने लगे हैं कि धर्म केवल ढौंग, बदमाशी, कायरता और स्वार्थ मात्र है । उमने हमें परतंत्रता सिखाई, कायरताका पाठ पढ़ाया और खूनको नदियां बहाने में भी सहायक हुआ । सचमुच धर्मके नाम पर होने वाले अन्याय, अत्या चारों और रक्तपानोंको देख कर यदि कोई ऐसी कटु भर्त्सना करे तो आश्चर्य ही क्या ! श्राज जैन, बौद्धसे, बौद्ध वैष्णव से वैष्णव, मुस्लिमसे मुस्लिम, ईसाईसे और ईसाई आपस में ही अपने २ सिद्धान्नों की रक्षा करने एवं दूमरोंसे अपने को महत् प्रमाणित करनेके लिए लड़ मर और कट रहे हैं। परंतु वास्तव में देखा जाय तो यह सब पक्षपात, दुराग्रह एवं अज्ञानताका विषैला परिणाम ही है। भला, हमारे जीवनसे इन बातोंका क्या सम्बन्ध ? ऐसी असंख्य घटनाएं तो हमारे दैनिक व्यवहारिक और सामाजिक जीवन में ही घटित हुआ करती हैं, उन्हींसे निवृति पानेके लिए तो "धर्म" का श्राविष्कार हुआ ! और वहाँ भी यही दुष्प्रवृत्तियाँ ! हाय !! "वस्तुके स्वभावका नाम ही है धर्म" एक धर्माचार्य जैनका मन्तव्य है । पानी सजीव हो अथवा निर्जीव, जड़ हो या चेतन कोई भी वस्तु हो, उसका जो स्वभाव होगागुण होगा, वही उसका धर्म कहा जायगा । और जो वस्तु होती है, वह बिना गुण अथवा स्वभावके तो हो ही नहीं सकती। हां, यह होता है कि परिस्थिति विशेष अथवा पर्याय विशेषमें उन गुणों धर्मों अथवा स्वभावोंका तिगेभाव भले ही हो जाय वे दृष्टिगोचर अथवा अनुभवगोचर न हो, तो कहनेका तात्पर्य यह है कि मनुष्य ही नहीं प्रत्येक सचेतन प्राणीका धर्म अपने ही पास है, उसे प्राप्त करनेके लिए किसी दूसरेकी शरण में सहायतार्थ जाकर हाथ फैलाने और मुँह खोलने की आवश्यकता नहीं । मानवजीवनकी सफलता भी इसमें है कि वह अपने अविकसित, दबे पड़े हुए गुणां को प्रकट करे और अनन्त आनन्दमय जीवनका जन्ममृत्युविहीन जीवनका सुखोपभोग करे । परन्तु एक प्रश्न है। यह अनन्त ज्ञान, दर्शन आदि जो आत्मा गुण हैं, उन्हें प्रकट किस प्रकार किया जाय ? हमारी आत्मा के चारों ओर कुछ ऐसे पुद्गल परमाणु
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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