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________________ स्वागत भाषण (स्वागताध्यक्ष रा० सा० श्री ला० प्रद्युम्नकुम्परजी द्वारा) -> > माननीय महानुभायो ! लिये एकत्रित हुए हैं, जिमने अपना सारा जीवन जैन साहित्य और इतिहास की खोज में लगाग और अपने आज इस सम्मान-समारोह में एकत्रित हुए श्राप जावन्की मारी सम्पदा भी अन्तमें उसी उद्देश्यके लिये सब बन्धुओंका स्वागत करते हुए मुझे महान हषे हो अति करदी। ऐसे मनुष्य की मान प्रतिष्ठा करना रहा है। प्रत्येक मनुष्यकी तरह मेरे जीवनमें भी प्रत्येक समाज और मनुष्यका कर्तव्य है, पर इतनेस अनेक मानन्दके अवमर आये हैं, पर यह उन सबमें हा हम आजक उत्सबका महत्व नहीं समझ सकते । अपूर्व है। यह मेरे साथियोंकी अनुकम्पा ही है कि अपने एक माधक विद्वानका सम्मान करना, बस उन्होंने यह मौभाग्य मुझे दिया कि मैं उन सबकी इतने तक ही आजक उत्सवकी सीमा नहीं है। उस ओरसे इस पवित्र मण्डपमें आप सबका स्वागत करूँ। सम्माननीय विद्वानने क्यों अपना जीवन इस कायमें यह कार्य आनंद और हर्षका है, पर आप मुझे क्षमा लगाया, यह एक प्रश्न हमारे सामने आता है। करें, सुविधाका नहीं है। क्योंकि विद्वानोंका स्वागत उनकी इम धुनका, जिसने उन्हें संसार की उन सब करने के लिये भी विद्वत्ताकी आवश्यकता है और लिप्माओं से दूर किया, जिनमें हम रात दिन फंसे मैं उमसे उतना ही दूर हूँ, जितना आप अविद्याम रहते हैं, आखीर आधार क्या है ? उन्होंने अनुभव दूर हैं, पर बड़े लोग अपने छोटों की बालक्रीड़ाओंसे किया कि जैन माहित्य में ऐसे अनमोल रत्न हैं, जो भी पानन्दित होते हैं, यही सोचकर मैं अपनी हार्दिक संसारको स्वर्ग-सा सुरमय, जीवनको महान और श्रद्धाभावनाके साथ यहाँ आपका स्वागत करता हूँ राष्ट्र को उन्नत बनाने वाले हैं और साथ ही उन्होने और यह अनुभव करता हूँ कि आज हमारे इस यह भी देखा कि संसार उन रत्नोंको भूल रहा है, इन नगरका बड़ा ही भाग्योदय है कि श्राप कृपा काक रत्नोंपी उपेक्षा करके कांचका शृङ्गार कर रहा है। पधारे। आप जैसे माननीय अतिथियों के स्वार,तके उन्हें यह देखकर और भी चोट लगी कि दीर्घकालकी लिये हमें जो व्यवस्था करनी थी, वह अनेक कारणों - उपेक्षा कारण कहीं कहीं उन अनमोल साहित्य रत्नों से हम न कर पाये, और इस प्रकार आपको यहाँ की शृंग्वला नष्ट हो चली है । उन्होंने अपने मनमें असुविधाओंका होना सहज ही है, पर इस उत्मव संकल्प किया कि मैं उन्हें झाड़-पोंछकर संसारक मामने के उद्देश्यकी छायामें मैं श्राशा करता हूँ कि आप उनपर रक्खंगा, जिससे संमार इनकी सुन्दरता परखे, इनका विशेष ध्यान न देकर हमारी भावनापर ही ध्यान देंगे। मोल जाने और इनसे लाभ उठा कर सुखी हो । हमारा उद्देश्य-- हम इम भावना को ममभलें, तो फिर मतभेदकी भी कहीं गुंजायश नहीं रहती, क्योंकि अंगूठी में पुखआप और हम सब यहां एकत्रित हुए है, यह राज लगे या होग और उसे गोल रखना रोक है या आप हमारी विज्ञप्तियों में पढ़ चुके हैं। आपकी उप- चकोर, ये तो ऊँचे कलाकारोंके विवाद-विषय हैं। स्थिति से यह भी सिद्ध है कि उसे आपका अनुमोदन यह तो सभी मानते हैं और यही मुख्य बात है कि प्राप्त है, फिर भी मैं उसपर दो शब्द कहना चाहता रत्न सम्मान की वस्तु हैं, उपेक्षा की नहीं। आज जब हूँ। यहां हम एक ऐसे विद्वानका सम्मान करने के हम इम सम्मान-महोत्सबमें सम्मिलित हुए हैं. तो
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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