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________________ आज का मेस्मेरिज्म और जैनधर्मका रत्नत्रय (ले०-कौशलप्रसाद जैन व्यवस्थापक 'अनेकान्त') भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तोंका दौरा करता हुआ बिना वह अजनबी यात्री महाशय तेजीसे अपनी "मैं बिल्कुल नये स्थानकी एक धर्मशालामें कोठरीमें घुस गये और जब तक हम लोग यहां पहुंचे ठहरा हुआ था। दिसम्बरका महीना था और अन्दा- उन्होंने अपनी कोटरीके किवाड़ बन्द कर लिये। अब जन रात्रिका एक बजा होगा कि किसी स्त्रीकी करुण बाहर उनके विषयमें चर्चा होने लगी-कोई उनको चकारसे अचानक आँख खुल गई। रोनेका शब्द पास मंत्रवादी, कोई तांत्रिक और कोई २ तो सिद्ध महात्मा के कमरेसे बारहा था और क्रमशः इतना तेज आरहा कहने में भी नहीं चूके। पर एक स्थान पर शायद सब था कि जब पड़ा रहना असम्भव हो गया तो रजाईसे एक मत थे और वह था उनका हृदयपटल, जहां पर मुँह लपेट कर बाहर निकल आया। मेरी ही तरह सबको एक ही बात थी कि किसी प्रकार भी उनमे यह धर्मशालामें ठहरे हुए अन्य मुसाफिर भी बाहर विद्या उड़ाई जावे या फिर दो चार २ वरदान तो निकल आये थे और कारण जाननेका प्रयत्न कर रहे अवश्य ही मांगे जाएँ। कोई लक्ष्मी पानेका नकशा थे। उनकी बातचीतसे जो कुछ पता लगा उसका बना रहा था तो किसीकी गोदमें काल्पनिक बच्चा आशय यह था कि पासके कमरे में ठहरे हुये सद्गृहस्थ खेल रहा था। कोई मुकदमा जीतनेकी तरकीब सोच किसी अन्य रिश्तेदारीसे अपनी पत्नीको लेकर आरहे रहा था तो किसीने नौकरी पानकी अजीते थे, उन्हें पासके प्राममें अपने घर जाना था, स्त्रीको थी। मैं भी अजीब किस्मकी उधेड़ बुनमें अपनी सात मासका गर्भ था और इस समय उसको बच्चा कोठरीमें भागया और विस्तरमें पड़ कर अदभुत यात्री पैदा होनेका दर्द हो रहा था। समस्या यह थी कि के सम्बन्धमें सोचने लगा। धर्मशालामें ठहरे हुवे सभी व्यक्ति मेरी तरह वहां पौ फटी ही थी, दिन अभी अच्छी प्रकार निकला के लिये अजनबी थे और कोई डाक्टरी सहायता भी नहीं था कि मेरी आँल खुली और मैं शीघ्रतासे किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी, इधर बीका करुण अपनी कोठड़ीसे उस अद्भुत यात्रीकी ओर इस लिये कन्दन बराबर बढ़ता जारहा था। इतने में ही पासकी भागा कि कहीं वह जल्दी चला न जाय। वहां पहुँच एक और कोठरीसे एक अपरिचित सजन बाहर कर मैंने देखा कि वह अपने बिस्तर पर बैठे हुए धर्मआये-उन्नत ललाट, गौरवर्ण, आँखोमें एक अजीब शालाके अन्य यात्रियों के साथ वार्तालाप कर रहे है जो प्रकारकी चमक थी। आते ही उन्होंने भी हमारी तरह शायद मेरी ही तरह उनके पास उनके चले न जानेके प्रश्न किये और फिर एक दम स्त्रोके पास चले गये। डरसे जल्दी ही पहुँच गये थे। अपनी उत्सुकता दबा न सकनेके कारण हम लोग भी "महाराज! आप सब कुछ कर सकते हैं--प्राप उनके पीछे पीछे अन्दर चले गये। हमारे देखते २ सर्वशक्तिमान है।" बैठे हुए यात्रियों में से एकने कहा। उन्होंने स्त्रीके पेट पर दस-बीस बार हाथ फिराया। "भाई यह तुम्हारी भूल, मैं तो तुमसे भी हमारे श्राश्चर्यका ठिकाना न रहा जब बीने हमें बाहर अधिक पतित साधारण मनुष्य हूँ", उनका संक्षिप्त सा होजानेको कहा और हमारे चौखटसे बाहर पैर रखते उत्तर था। ही नवजात शिशुके रोनेकी ध्वनि हमारे कानों में पड़ी। "समी पहुँचे हुए सिद्ध महात्मा इमी प्रकार कहा अपनी प्रशंसा सुने बिना तथा अपनी सफलता देखे करते हैं, यह तो दूसरे ठगने वाले लोग ही उछला
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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