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________________ दुखका स्वरूप (पुग्यत्तमदास मुरारका. पाहित्यरल) - "तू भ्रम वह तम मेरा प्रियतम, प्रा सूनेमें अभिसार न कर" -महादेवी वर्मा दुखका स्वरूप अंधकारमय है तथा आनन्दका प्रकाश- हैं। साधारण दुख, विरह, आध्यात्मिक विरह आदि सब पूर्ण है। मानव-हृदयकी आदिम अवस्थासे सुख तथा दुख वेदनाकी कोटमें ही पाते हैं। भक्तोंको वेदना एक अत्यन्त उसके हृदय पर पूर्णरूपसे आधिपत्य एवं प्रभुत्व प्रस्थापित पिय साथी सी प्राचीन कालसे ही राती श्राई है। वेदनाकी करते रष्टिगोचर होते हैं। बालकके हृदयमें भी सबसे पूर्व आँचमें नप कर प्रेमविशुद्ध बन जाता है। उसका कलुषित मुख-दुखकीही अनुभूति होती है। समस्तभावों अथवा मनो- अंश, उसका मलीन भाग वेदनाकी तप्त बयार पाकर घिविकारोमै उखका अन्यतम स्थान है। वेदना ही कई लने लगता है तथा अपने स्वच्छ एवं निर्मल स्वरूपमें मिन्न प्रतीत होने वाले विकारोका मूल स्थान है। जब दृष्टिगोचर होता। विशद्धप्रेमको साकार प्रतिमा मीरा जब हम किसी भी व्यक्तिकी हीन दशासे प्रेरित हो दयावश अपने कोकिल कण्ठोंसे माधुर्य भावसे पूर्ण होकरकरुणासे प्राप्लावित होते प्रतीत होते हैं उस समय हमारे 'हेरि मैं तो प्रेम दिवाणी, मेरा दरद न जाणे कोय' हृदयके किसी अशात स्थल पर निर्मम चोट पहुंची हुई सी अपने 'प्रेम मतवालेपन' का तथा अभिनव दर्दका व्यादिखलाई पड़ती है, अथवा यदि हम किसी बदमाशसे किसी ख्यान करती थी उस समय किसी भी भावुक हृदयमें स्पंदन अबलाको छुड़ानेके लिये क्रोधसे प्रेरित होते है तब भी उस तथा चेतना व्याप्त हो जाने लगती थी। सूर भीकी विपन्न तथा असहाय दशा हमारे हृदयमें दुःख नामक "निशिदिन बरसत नैन इमारे, भावका संचार करते दृष्टिगोचर होती है। सदा रहत पावस तु हम पर दुखका स्वरूप जैमा अंधकारमय है उमी प्रकार उमका जबसे श्याम मिधारे !" श्राकार भी अत्यन्त विस्तीर्ण है। दुःखानुभूतिके ममय हम प्रीनमके वियोग में अपने नयनासे जल प्रवाहित करते इस भौतिक पार्थिव स्थलका परित्याग कर एक निर्मल एवं हुएसे दृष्टिगोचर होते हैं। निःस्वार्थ भावोंमे पूर्ण अलौकिक भूमि पर श्रावि न हो तात्पर्य यह है वि दुख अथवा वेदना प्राचीन युगमे ही जाते हैं। दुखके समय हमारी ममस्त मायाजनित शक्तियाँ भक्तोंकी बड़ी भारी संबल एवं सहायक रही है। दुखकी तथा उनके बंधन ढीले हो जाते हैं तथा हमें वैराग्य और सानभौम सत्ताको, उमकी अविच्छिा परम्पराको तथा उस विश्वप्रियताके सुन्दर सिद्धान्तोंका बोध होनासा प्रतीत होता है। की परिपूर्ण स्थिति को अस्वीकार करना भयानक मूर्खता जिस प्रकार प्रकाशका अभाव ही अंधकार है उसी होगी, केवल मिथ्या अहंकार होगा तथा तिरस्करणीय एवं प्रकार सुखका अभाव ही दुख है। दुखकी अनुभूति भी बड़ी अभिमानपूर्ण कृत्य होगा। इस विश्वके वक्षस्थल पर जन्म सोबती। उसके प्रवाहमें हमारे सब मनोविकार लेकर जिमने वेवनाको नहीं ललकाग, ऐसा अबोध अकिंचन पलायन करतेसे प्रतीत होते हैं। दुबके प्रकार भी असंख्य शायद ही कहीं दिखलाई पड़े। . अनेकान्त-साहित्यके प्रचारकी योजना अनेकान्तमें जो महत्वका उपयोगी ठोस साहित्य निकलता है, हम चाहते हैं। उसका जनतामें अधिकाधिक रूपसे प्रचार होवे। इसलिए यह योजना की गई है कि चतुर्थ वर्ष और पाँच वर्षके विशेषाहों को, जिनकी पृष्ठसंख्या क्रमशः १२० व १०४ और मूल्य ) 1)है. नाममात्रके मू०)व:) पर वितरण किया जावे। अतः दानी महाशयों को मंदिरों, लायरियों, परीक्षोत्तीर्ण विद्यार्थियों और अजैन विद्वानों मादिको भेंट करने के लिए शीघ्र ही चाहे जिसककी २५, ५०,१०० कापियां एक साथ मँगाकर प्रचारकार्य में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिये। प्रचारार्थ पोष्टज भी नहीं लिया जायगा। बीरसेवामन्दिर सरसावा जि. सहारनपुर।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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