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________________ ६४ अनेकान्त [वर्षे ६ इस विषयमें अध्यात्म विचाके कवि मैया भगवतीदासजी कोई अन्य नहीं है, मोहवश यह जं.व अन्यको निमित्त कहते है-- घट घट अंतर जिन वसै, घट घट अंतर जैन । जानता है (और रागद्वेष करता है), यथार्थमें जैसे कर्मोंका संचय-संग्रह इसने किया है. वैसा ही फल यह पाता है। मोह-मद्यके पान सों, मतवारो समझे न ||+ एक विवेकी जैन कवि कितनी सुंदर शिक्षा देता हैजैन कोई सांप्रदायिक पद नहीं है, जो भी व्यक्ति को कार्को दुख देत है, देत करम झकझोर । मात्माको पवित्र करनेका पुरुषार्थ करता है-पारमाकी दुर्बलता पर विजय प्राप्त करता है-वह उतना जैन है। उरम सुरमै आप ही ध्वजा पवनके जोर ।।+ ऐसा मारमविकार-विजेता ब्यक्ति किसी भी देश, जाति, वर्ण, इस पात्मनिर्भरताकी तालीमका यह तात्पर्य नहीं है, वर्गका भले ही हो। इसके विपरीत जैन नामक धर्मका कि जीव स्वच्छन्द आचरण करे। इसका ध्येय है, कि यह धारी भी यदि कषायों-क्रोधादि पापाचारोंसे अपनेकोपर जीव परका अवलंबन छोड कर स्व (self)का-अपने तर मलिन करता है, तो वह वास्तव में जैन नहीं कहा जा पवित्र अंत:करणका अवलंबन करे, कारण सच्ची लौकिक सकता है। जैन शब्द ही विकार-विजेता-पने तथा उस अथवा प्रारिमक उमतिका कारण स्वावलंबन है। भोर माराधनाके भावको घोषित करता है। जब यह भारमा विकारोंके बोझसे अधिक दबी हुई इस जीवके उत्थान या पतनकी जिम्मेदारी किसी अन्य रहती, क्षण पण जरा जरासे कारण इसे लालच, घमंड, पर नहीं है। अपनी पाशविक शक्तियोंको बढ़ा कर या उन बल प्रपंच आदिसे पददलित करते हैं, तब यह एक दम के लिए प्रयत्न करते रह कर यह अपने सुखके मार्गमें दुःख भाष्म अवलंबनकी उच्च सीढ़ीपर नहीं चढ़ सकती है। के कांटोंको बोता है. और पश्चाताप करता है। कदाचित उस अवस्थामें इसे वीतरागता तथा शुद्धताके भादर्शकी यह माध्यात्मिक या देविक संपत्तियोंको उत्पन्न करता है, भाराधनाकी जरूत पड़ती है, जिससे पवित्रताका ध्येय, इस या पुण्य-विचारों तथा भाचरणसे अपनी जिंदगीको निर्मल जीवका, सदा जागृत बना रहे। करता,तो ऐसे भविष्यका निर्माण करता है, जहां सुख यह वीतराग, शान्त, प्राकृतिक वेषधारी अंत और शांतिका अखंड साम्राज्य प्राप्त होता है। 'ष्टिधारी तीर्थकरों-पूर्ण प्रारमाओंकी पूजा करता है, इस मास्मनिर्भरताकी शिक्षाके अभावमें जहाँ संकट ताकि उनके निमित्तसे इस जीवको प्रारम-स्मृति हो माने पर या मुसीवतग्रस्त होनेसे अन्य अरष्ट शक्तिकी जाय । यह यथार्थ में मूर्तिकी पूजा नहीं है। कृपाके लिए दीनतापूर्वक प्रारजू मिशत करता नजर आता __ मूर्ति तो शुद्ध भावनाका अवलंबन मात्र है। जिनेन्द्रहै, वह वैज्ञानिक धर्मका पाबक अपनी मारमशक्तिको महत तीर्थकरकी पूजाका अर्थ मूर्तिकी ( Idol) पूजा रूहानी ताकतको जागृत करता है। कारण, वह यह खूब नहीं है वह प्रादर्श (Ideal worship) की आराधना समझता है, कि मैंने ही अपने कमोसे ऐसी परिस्थिति है।आदर्श बननेका मार्ग भी संसार भरके लिए व्यापक है। निर्माण की ।'बोए पेड़ बबूलके भाम कहाँ ते होय। भाराधनाका ध्येय आदर्शका दास बनना नहीं--आदर्श उसकी यह श्रद्धा रहती है कि सुख दुःख देने वाला के समान पूर्ण और पवित्र बन जाना है। यहां पूजाका ध्येय +प्रत्येक हृदयमें जिनभगवान मौजूद, मी तरह उनका बा विशुद्ध है। देखिए महान् जैन भाचार्य उमास्वामी भक्त जैन भी है। मोहमयी शराब पीने के कारण मत्त प्राणी महाराज कितने महत्वपूर्ण शव कहते हैं:-- [कमशः] इस रहस्यको नहीं जानता। +कौन किस जीवको दुःख देता है? कर्मका वेगही दुःखका xजो कर्म शत्रुओं पर विजय लाभ करे, उसे जिन या जिनेन्द्र कारण है। देखो, ध्वजा बाके निमित्तसे स्वयं उलझती है कहते हैं। उनके पूजकोंका नाम 'जैन है। और अपने आप ही सुलझ भी जाती है इसी प्रकार यह सुखस्य दु:खस्य न कोपि दाता, परो वदातीनि कुबुद्धिरेषा। आत्मा अपने कर्मोंसे मुसीबत में फंसता है और अपने पुरु*अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रप्रथितो हि लोकः ॥ षार्थसे कमौके जालको काट कर मुक्त होता है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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