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________________ हिन्दीके जैनकवि (ले०-श्री जमनालाल जैन, विशारद ) वर्तमान समयमें हिन्दी-साहित्य-संसारके भातर, अनेक कामुक बना कर पाशविक प्रवृत्तियोंका दास बना कर मानकवियोंकी अपनी चाल, विचार और प्रादर्श हैं। समा- बतासे कोसों दूर फेंक दिया, तिस पर भी हमारे तरुण खोचक महोदय भी अपने अपने दृष्टिकोणसे सबको परखने कवि यदिकी केटा करते रहते है और जिस वाद या कविको अपनी "प्रेयसि, याद है वह गीत ! विचार-चारा प्रतिकूल पाते हैं उसे मारे हाथों लेने में नहीं गोवमें तुमको लिटा कर, हिचकते हैं। कोई चायावादका उपहास करते हैं, कोई रह कंठमें उन्मत्त स्वर भर, स्वपाव पर बंग करते है, कोई प्रगतिवादको दुखत्तियाँ गा जिसे मैंने लिया था स्वर्गका सुख जीत" बगाते है तो कोई प्रतीकवावसे चिढ़ते हैं। इस समय हम गाया करें तो यह हमारा दुर्भाग्य नहीं तो और क्या देखते है, प्रगतिवाद पर बहुत कुछ चर्चा चल रही है और है? एक ओर मासूम बच्चे विधवा रमणियां और निःसहाय उस पारामें प्रवाहित होने वाले कवियोंको कोसा भी खूब पंगु लोग, क्षुधा और तृषासे पीदित हो त्राहि २ करके मारहा। जिसमें चंचल' का नाम विशेष उल्लेखनीय प्राय छोड़ रहे हैं तो दूसरी चोर हमारे कवियोंको भालिंगन, है। बाद कोई भी हों,कैसे भी हों और अपने अपने अपने चुम्बन सूझ रहे हैं! ऐसे ही कवियोंकोलचय करके कविवर रटिकीयसे चाहे जैसे हो, परन्तु जब हम देखते हैं कि इन भूधरदासजीने जैनशतकमें कहा है:वाओंकी मोटमें समाजमें भरक्षीनताका प्रसार हो रहा है राग उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई, तो बानि, खेद और सोभसे हदय फलसने क्षगता है। सीख विना नित सीखत है, विषयादिक सेवनकी सुघराई। मालूम नहीं रीति-कालीन कवियोंकी अतृप्तलालसा भाजके ता पर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई कवियोंकोपयों बालायित कर रही है, ये उस ओर क्यों अंध असूमनकी अँखियानमें, डारत हैं रज राम-दुहाई। प्रवाहित होते जारहे हैं। भाज, जब समसमें इतना विषम हिन्दीसाहित्य बेचारा एक तो पहल हीसे बदनाम परिवर्तन होगया है, एक दम हवा ही बदल गई है तब भी शृंगारियों द्वारा है, दूसरे माज हम उसी ओर और अपने हम वही राग मालापा करें यह कैसे हो सकता है। आज पापको ढकेल रहे हैं। हा! कहाँ गए वे तुलसीदास, तो मानव मानवके खुलका प्यासा हो रहा है, दोनों वक्त भर- कबीरदास और बनारसीदास ! यदि भाज वे होते, तो इन्हें पेटलानेको भी नही नसीब होता, बच्चे सोती खोती कुछ बरताते, समझाते, कि "भरे युवको! यह क्या कर रहे करते ही मां अंचलमें मुंह ढांक कर सोजाते हैं और हो, क्यों मातृ जातिका तिरस्कार, अपमान कर रहे हो, अनपच्चों-सुकुमार पोंकी दारुण और करुणास्पद स्थिति सोचो और सममो!' पर मांकी पांचोंमें मांसू भी नहीं रहे हैं, तब भी हम माज, ऐसे ऐसे गीत और कविताएं साहित्यिक पत्रमस-शिक, प्रेमी-प्रेमिकाकी असंगत राग अलापा करें, बड़े पत्रिकाओंके मुखपृष्ठों तक पर रष्टिगोचर होती हैं जिनमें न भारपर्थकी बात है! एक तो पहले ही रीतिकालीन राज्या- सौंदर्य रहता ,न लोककल्याणकी उत्कृष्ट भावनाएं रहती श्रयी कवियों, कवियों नहीं कौनों अथवा चाफ्लूसोंने है. प्राव्यहीन जीवनमें अमृतधाराकी वर्षा कर सके वह भरखीलताकी भयानक समाज, देवा और साहित्यमें शक्ति ही रहती। वार्दो वादों और अपनी आंतरिक जाकर हमारे राजमार्ग, बतिक सात्विक साम्राज्यको गंदा पशिक यौवनोन्मत्त भावनाओंकी चोटमें हमारे कवि उनमें बना दिया और हमें मानसी, अकर्मण्य, विखासी तथा ऐसे २ शब्दों और भावोंका अंकन करते है, जिन्हें पड़ना
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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