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________________ सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद (ले०-प्रो. हीरालाल जैन, एम० ए०, एल०-एल० बी०) [गत किरणसे आगे] और उसके चूर्णिसूत्रोंके कर्ता यतिवृषभाचार्य हैं। प्रथमपक्ष पादरपृथिवीकायादि जीवोंकी गुणस्थानभेदके बिना ही यतिवृषभाचार्यके मतानुसार है या नहीं यह भी अभी हम प्ररूपणा की गई है जिससे उनमें एक ही मिथ्यारष्टि गुणनिश्चयत: नहीं कह सकते जब तक कि चर्णिसत्रोंकी उस स्थान माना जाना सिद्ध होता है। क्षेत्रादि प्ररूपणाओंके रष्टिसे जाँच न कर ली जाय। दूसरे पक्षको संस्कृतटीकाकार सूत्रों में भी एकेन्द्रिय-विकजेन्द्रिय जीवोंके गुण,स्थानभेदका ने स्पष्टत: भूतल प्राचार्यादिका कहा है। यथा कथन नहीं पाया जाता। पर इस सम्बन्ध स्पर्शनप्ररूपणा "अथ भुनचल्याचार्यादिप्रवाहोपदेशेनाह-" इसी के कुछ सूत्र ध्यान देने योग्य हैं। जैसे-- के प्राधारसे पं. टोडरमलजीने कहा है पागे भूतबलि सासणसम्माइट्ठीहिं केवडियं खेतं फोसिदं ? वाचायकन धवल शास्त्रका उपदेश इत्यादिरूप दूसरा पक्ष लागरम असंखजांदभागा । अट्ट बारह चादसभागा कवि कथन करें हैं--" हम आगे देखेंगे कि भूतबलि वा देसुगा ।। ३-४॥ आचायके षट्खंडागम सूत्रोंसे वह दूसरा मत सिद्ध नहीं लस्साणुवादेण पि.एहलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउहोता । 'मादि' शब्दमे टीकाकारका किन प्राचार्योंसे अभि- लेस्सियमिछाइट्ठी पोषं। सासणसम्माइट्टीहि केवप्राय है यह कहा नहीं जा सकता । 'प्रवाहोपदेश' कहनेसे डियं खेतं पांसिदं? लोगस्स असंखेजदिभागो । पंच जान पड़ता है कि उस मतकी परम्परा टीकाकार तक बरा- चत्तारि वे चोहसभागा वा देसूणा ।।१४६-१४८।। बर प्रचलित थी। कर्मकांडकी पूर्वोक्त गाथा ३आदिमें थे ही वे सूत्र हैं जिनके आधार पर सर्वार्थ सिद्धिकारने उसी प्रकाहरूप उपदेशका प्रहगा पाया जाता है। अपनी उपर्युक्त रचना की है। अतएव सर्वार्थसिद्धिकारके षटूखंडागमके जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणादि कथनानुसार इन सूत्रोंके रचयिताको सासावन सभ्यग्रष्टियोंका अब हम पुष्पदन्त और भूतबलिभाचार्योंके षट्खंडा एकेन्द्रियों में उत्पन्न होना मान्य नहीं है। यह बात उपर्युक्त गम सूत्रोंपर आते हैं । जीवस्थान खंडकी सम्परूपयामें सनरूपणा व द्गप्रमाणाणुगमके सूत्रोंसे भी प्रतीत होती इन्द्रियमार्गणानुसार गुणस्थान-व्यवस्था करते हुए पुष्पदन्ता है। पर यहाँ भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि साचार्य सूत्र कहते हैं सादन सम्यक्त्वी एकेन्द्रियों में नहीं जाते तो उनका बारह एईदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असरिण- राजूप्रमाण क्षेत्र स्पर्शन करना कैसे घटित हो सकता है? पंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्टि-ट्ठाण ।। ३६ ।। इसके लिये हमें यह मानना ही पड़ता है कि सासादन जीव इसके अनुसार एकेन्द्रिय, विकले न्दिय और असंज्ञि एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात तो करते ही हैं। पंचेन्द्रिय जीमें सामान्यसे केवल एक मिथ्यारष्टि गुण जीवट्ठाणकी गति-श्रागति चूलिका स्थान ही ठहरता है। कायमार्गणा सम्बन्धी "पुढविकाइया अब जीवट्ठाणकी गति-भागति चूलिकाके कुछ सूत्रोको आजकाइया ते उकायिका वाउकायिका वण'फइकाइया देखियेएक्कम्मि चेय मिच्छाइडिहाणे" ॥४३॥ तिरिक्खसासणसम्माइट्ठी संखेन्जयस्सारा तिरिइस सूत्रसे मी पृथिवी - कायादि एकेन्द्रिय क्खा तिरिक्खेहि कालगदसमारणा कदि गदीश्रो जीवोंके केवल एक मिथ्यारष्टि गुणस्थानका ही प्रतिपादन गच्छति ? तिरिण गदीश्रो गच्छति-तिरिक्खगदि पाया जाता है। द्रव्यप्ररूपणाके सूत्र नं. ८ मादिमें मणुस्सगदि देव गदिचेदि । तिरिक्खेसु गच्छंता एइं
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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