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________________ १८ अनेकान्त [वर्ष ६ दिय-चिदिए गच्छति, णो विगलिंदिग्सु । एइंदि-है। सरूपए के ऊपर उद्धत सन्न ३६ की टीकामें उन्होंने एस गच्छंता बादरपुढविकाइय-बादरा-काइय-बादरवणप्फइकाइयपत्तयसरीरपज्जत्तएसु गच्छंति, णो अप- "एइंदिएसु सामणगुणहाणं पि सुणिज्जदि तक, जत्तेसु । पंचिदिएसु गच्छंता मण्णीसु गच्छंति, णो घडदे ?ण, एदम्हि सुत्ते तस्स गिणसिद्धत्तादो। विरुद्धअसरणीसु॥ ११६-१२३ ।। त्थाणं कधं दोण्ह पि सुत्तत्तणमिदि?ण, दोरहमेगमरणुस्सपासणसम्माइट्ठी संखेनवासाउमा मणुसा दरस्स सुत्तत्तादो। दोएई मज्झे इदं सुत्तमिदं च ण मणुसेहि कालगदसमारणा कदि गदीओ गच्छति ? भवदीदि कधं णव्वदि ? उवदेसमंतरेण तदवगमातिरिण गदीश्रो गच्छति-तिरिक्खगदि मणुसगदि भावा दोरह पि संगहो कायव्यो। दोएह संग करेंतो देवगदि चेदि । तिरिक्खेसु गच्छता एइंदिय--पंचिंदि- संसयमिच्छाइट्ठी होदि ति ? तरण, सुत्तहिटमेव एसु गच्छति, णो विगलिंदिण्सु । एइंदिएसु गच्छता अत्थि त्ति सहतस्स संदेहाभावादो। उत्तं च-.. बादरपुढची-बादरमाउ-बादरवरएफदिकाइयपत्तेयसरीर सुत्तादो तं सम्म दरिमिजतं जदा ण सहदि । पज्जत्त रसु गच्छंति,पो अपजत्तेसु।पंचिदिएसुगच्छंता सो चेय हदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीयो। सएणीसुगच्छति, णो असरणीसु॥ १५१-१५५ ।। यहाँ शंका-समाधानके रूप में उपर्युक विरोधको भाचार्य देवा मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी देवा देवेहि वीरसेनने इस प्रकार समझाया हैउत्रट्टिद-चुदममाणा कदि गदीओ आगच्छति? दुवे शंका-एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थान भीती गदीओ आगच्छति-तिरिक्खगदि मणुसगदि चेव। सुना जाता है, वह किस प्रकार घटित होता है? तिरिक्खेसु आगच्छंता एइंदिय-पंचिदिएसु आगच्छति, समाधान-वह नहीं घटित होता, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र णो विगलिदिए । एइंदिपसु आगच्छंता बादरपुढवि- में उसका निषेध कर दिया गया है। काइय-बादरभाउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय पत्तेयसरी- शंका-तो फिर एकेन्द्रियोंमें सासादन गुणस्थान रपज्जसएसुमागच्छति, णो अपज्जत्तएसु । पंचिदिएसु होता है और नहीं होता है। इन दो विरोधी प्रोंका मागच्छंता सएणीसु प्रागच्छति णो असरणीसु। प्रतिपादन करनेवाले दोनों बचों में सूत्रपना कैसे बन ॥ १७३-५७७॥ सकता है? इन सूत्रों में व्यवस्थित, स्पष्ट और विना किसी भ्रान्ति समाधान नहीं बन सकता, उनमेंसे कोई एक ही की सम्भावनाके भूतबलि प्राचायने यह प्रतिपादित किया सूत्र माना जा सकता है। है कि तिर्यच, मनुष्य और देव. इन तोनों गतियोंके सासा- शंका-पर यह जाना कैसे जाय कि इन दोनोंके बीच दन सम्यक्त्वी जीव बादर पृथ्वी, बादर जल और बावर यह सूत्र है, और यह सूत्र नहीं है? बनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर जीवोंमें उत्पन्न होते है, किंतु समाधान-धिना किसी कुशल भाचार्यके उपदेशके विकलेन्द्रियों और प्रसंशी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते। यह बात नहीं जानी जा सकती, अतएव दोनों मोंका षदखंडागमकी टीका धवला संग्रह करना चाहिये। उपर्युक समरूणादिके एकेन्द्रियोंमें केवल एक शंका-दो विरोधी मतोंका संग्रह करनेवाला तो गुणस्थानको स्वीकार करनेवाले सूत्रों और इन गति-भागति संशय-मिथ्यारष्टि हो जायगा? के तीनों गतियोंसे सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में जाकर समाधान नहीं होगा, क्योंकि यह बात सूत्रोपदिष्ट ही उत्पन्न होना प्रतिपादित करनेवाले सूत्रोंकी संगति बैठानेका है, ऐसा श्रद्धान करनेवाले के संदेह नहीं रहेगा। कहा भी - भार षट्खंडागमकी धवला टीका लिखनेवाले प्राचार्य वीर- सूत्रके द्वारा भले प्रकार दर्शाये जानेपर भी जब कोई सेनपर पका है। पहले तो वे एकेन्द्रियों में सासादन गुण- श्रद्धान नहीं करता तब वही जीव उसी समयसे मिथ्यारष्टि स्थान माने जाने वन माने जानेके विरोधको स्वीकार करते होता है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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