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________________ १८ अनेकान्त [वप६ ऋग्वेद में "किं कुर्वन्ति कीकटेशु गात्रः" कह कर हिमा काण्डोंके विरोधी थे । यह घटना भी इमी बात मगध देशकी निंदा की गई है। इसमें भी यह सिद्ध को सिद्ध करती है कि उन देशोंमें क्षत्रिय-धर्म (श्रात्महोता है कि वैदिक ममयमें मगध देशमें वैदिक क्रिया- धर्म) प्रचलित था-अन्य देशोंमें यज्ञ श्रादि । और कांडोंका घोर विरोध होता था। जैन तीर्थंकर प्रायः इस लिये जैन तीर्थकर सभी क्षत्रिय ही थे। इन्हीं देशों में हुए हैं। और वे वैदिक यज्ञादिक नयोंका विश्लेषण (ले०-६० बंशीधर जैन व्याकरणाचार्य) [गकिरण नं. ८ से श्रागे] (१०) अर्थनय और शब्दनयके भेद सब इम नयकी ही कोटिमें प्राता है। कभी २ वका अपने जैनधर्ममें उल्लिखित अर्थनय और शब्दनयके निम्न- विवक्षित पदार्थको प्रगट करने के लिये अविवक्षित पदार्थको लिखित मात भेद स्वीकार किये गये हैं--(१)नैगमनय, (२) छोर कर सिर्फ उस विवक्षित पदार्थ का ही कथन किया संग्रहनय, (३)व्यवहारनय, (४, ऋजुसूत्रनय (२)शब्दनय, करता है। उममें भी यदि वह कथन संक्षेप अर्थात सामान्य(६)समयिरूवनय और (७) एवंभतनय'। इनमें से प्रादिके रूपसे मात्र उस विवक्षित पदार्थके स्वरूपका प्रदर्शन करने चार नय अर्थनय और अंतके तीन नय शब्दनय कहे जाते ___ वाला हो. तो उस कथनको संग्रहनय समझना चाहिये । हर तात्पर्य यह है कि नय वचनरूप होता है यह स्पष्ट यदि वह कथन विस्तार अर्थात विशेषरूपसे विवक्षित पदार्थकिया जा चुका है और वका वचनों द्वारा अपने अभिप्राय के भेद-प्रभेदोंको ध्यानमें रख कर किया गया हो तो उसे गत-अर्थात् विवक्षित पदार्यको प्रगट करनेके लिये निम्न व्यवहारनय और यदि वह कथन उस विवक्षित पदार्थके लिखित चार प्रकारकी कथनशैलीका उपयोग किया करता पावश्यक उपयोगी अंशको ध्यानमें रख कर किया गया हो है। वक्ताकी इसी चार प्रकारकी कथनशैलीके आधार पर तो उसे ऋजुसूत्रनय समझना चाहिये। इस तरह इन ही अर्थनयके पूर्वोक्त चार भेद घटित होते हैं--अर्थात् चारों ही नयों द्वारा भिन्न २ तरहसे चूकि अर्थका ही कभी २ वक्ता अपने विवक्षित पदार्थको प्रगट करनेके लिये प्रतिपादन हुआ करता है इसलिये इन्हें अर्थनय मान उस विवक्षित पदार्थ साथ २ उसके अनुकूल अविवक्षित लिया गया। इन चारों प्रकारके अर्थनयों द्वारा वक्ताके पदार्थका भी कथन किया करता है इस प्रकारके कथनको विवक्षित पदार्यको समझने में श्रोताओंको भ्रम, संशय नगममय समझना चाहिये। उपमा, उध्यक्षा, दृष्टान्त आदि अथवा विवादके उत्पन होनेकी संभावनाका जिक्र पहिले अलंकार पूर्ण जितना साहित्यिक वर्णन किया जाता है वह किया जा चकास लिये बक्ताके विधक्षित पदार्थको १-नैगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशन्दमममिरूद्वैवंभूना नयाः॥ समझनेमें श्रोताओंको भ्रम, संशय अथवा विवाद पैदा न --तत्वा० सू०१-३३ हो सके, इसका ध्यान रखते हुए वक्ताके लिये पदार्थका २-तत्रर्जुसूत्रार्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मताः । प्रतिपादन करते समय इन चारों ही प्रर्थनयों में व्याकरया, प्रयः शन्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचरा: ॥१॥ शब्दकोष और निरुक्ति या परिभाषाका सहारा लेना भाव -नाबा.लो. पृष्ठ २७४ श्यक हो जाता है और इस तरह इन व्याकरणादि निमित्ती
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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