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________________ ३२८ अनेकान्त स सत्य विद्या- तपसां प्रणायकः समग्रधीरुकुलाऽम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते बिलीन-मिथ्यापथ दृहि विभ्रमः ॥ ५ ॥ 'वे ( उक्त विशिष्ट ) श्रीपार्श्वजिन मेरे द्वारा प्रणाम किये जाते हैं, जो कि सभी विद्याओं तथा तपस्याओंके प्रणेता है, पूर्णबुद्धि सर्वज्ञ हैं, उपवंशरूप आकाशके चंद्रमा है और जिन्होंने मिध्यादर्शनादिरूप कुमार्गकी दृष्टियोंसे उत्पन्न होने वाले विभ्रमोंको- सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप बुद्धि विकारोको - विनष्ट किया है—अथवा यो कहिए कि भव्यजन जिनके प्रसाद से सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गके उपदेशको पाकर अनेकान्तहष्टि बने हैं और सर्वथा एकान्तवादिमतोंके विभ्रमसे मुक्त हुए हैं।' गोत्र - विचार ( ले०--पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ) 90 [ परिशिष्ट ] sant गत किरण नं. ८ मैं जो मेरे गोत्रविचार' शीर्षक लेलका प्राच भाग प्रकाशित हुआ है उसे पढ़कर अनेक विद्वान् पाठकोंने कुछ और शाम्य बातोंपर प्रकाश डालने दिये हिसा है। उनकी सूचनाओंका संकलन निम्न प्रकारसे किया जा सकता है (1) सन्धानका जो आपने धर्म किया है वह मननीय है उसपर थोड़ा और प्रकाश डाकिये। [ वर्ष ६ (२) गोकर्म जीवविपाकी है, अतः उसका शरीर नोकर्मकर्म कैसे हो सकता है । (३) देवों के उप गोत्रका और तिर्वच वथा गारकियों का ही उदय होता है, अतः इनके गोत्र अवान्तर मेदोका परस्पर संक्रमण नहीं हो सकतः । हाँ मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय होता है इस लिये इनके दोनोंका संक्रमव सम्भव है। (v) सचामें स्थित इब्बका उदपावलिमें जाये हुए में संक्रमण होता है । अब आगे इनका कमसे विचार करते है (1) पचानें गोत्रका सहच करते समय एक 'चार्यप्रत्ययाभिधानम्यमनिन्दानाम् वह आया है जिससे प्राचार्यने साश्व सामान्यकी और हमारा किया है। इससे मालूम होता है कि गोत्रमें समान आचारचाकी सम्तान की गई है। यद्यपि आाचार मोहनीयके उदयादिले होता है पर कीयोंमें आधार की अपेक्षा समानता या एकरूपता बनाये रखना और उसकी परम्परा चलाना गोत्रकर्मका कार्य है। प्रत्येक जीवका आधार अपने अपने चारित्रमोहनीयके हीमाषिक उदथादिके अनुसार हीनाधिक भी होगा पर इस व्यक्तिगत हीनाधिकवाके रहते हुए जो उन जीवोंके उसकी समानता देखी जाती है उसकी उस समा. गवाकी परम्पराका प्रयोजन गोड़कर्म है और इसी अर्थ में सम्यान शब्द परिवार्य है। इससे मालूम होता है कि समान निर्मायका गोत्रकर्म मुख्य अंग है यदि गोत्रको समाजका पर्यायवाची भी कहा जाय तो कोई अष्युक्ति न होगी। फरक केवल कार और कार्यका है । गोत्र मयभाव है जो कि कारय है और समाज इश्क है जो कि उसका कार्य हैं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि वह काम यो जातिकर्मसे भी होता है। जैसे मनुष्यजातिमामकर्मके उदयसे सब मनुष्य एक हैं और इसलिये उनका एक समाज हुआ। फिर गोत्रकर्मकी क्या आवश्यकता ? सो इसका यह समाधान है कि बात तो पर्याप नियामक है और गोत्र व्यवहारकी अपेक्षा मतः इन दोनों
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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