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________________ सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद (ले०-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए०, एल० एल० बी०) गुणस्थानोंकी चर्चा जैनदर्शनका प्राण है, क्योंकि यहाँ अंश भी सम्यक्त्व कहलाता है। जीव इसी सभ्यस्य यह विवेचन किया जाता है कि जो जीव अनादि कासे आश्रित हो जाते हैं और सायोपनिक सभ्यवस्वी कहलाते अपने स्वरूपको भूला हुश्रा है वह किस प्रकार अपने स्व हैं। ये जीव कभी कभी वन संयम आदि द्वारा समारिष रूपको पहिचान सकता है और तत्पश्रात यथार्थ ज्ञान और भी ग्रहण कर लेते है और अपनी योग्यता बढ़ाते बढ़ाते मचारित्रके द्वारा अपने पापको परमात्मपद पर पहुंचा अप्रमत्तसंयत हो जाते हैं। चारिग्रकी इस अवस्थामै कभी सकता है। इस प्रारमप्र.प्तिका सुयोग तभी मिल पाता है जीव फिर उपशम मग्यमत्वकी प्राप्तिका प्रयत्न करता है। जब अनेक संस्कारोंके बलसे मात्मामें एक विशेष शुद्धि परिणामौकी जिस उत्तरोत्तर बढ़ती हई विशुद्धिके द्वारा उत्पन्न हो जाती है और जीव अपने कुसंस्कागंका बान यहांगे उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया जाता है उसी क्रमवर्ती करता हुभ्रा उत्तरोत्तर निर्मल भावोंको प्राप्त करता है। श्रेणीका नाम उपशम-श्रेणी है। उचित समय पर यह प्रारम-शुद्धिकी क्रिया अन्तर्मुहूर्त-काल उपशान्तकवायसे सामादन हो सकता है या नहीं? में अर्थात ४८ मिनट के भीतर ही भीतर हो जाती है और उपशम श्रेणीके द्वारा जो जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त जीव अपने कुसंस्कार्गको दबा कर मिथ्यायको छोड सम्य- करता है वह फिर मामाइन सम्यवस्वी हो सकता है या नहीं कवी व भारमश्रद्धानी हो जाता है। चूकि यह श्रद्धान इसके सम्बन्धमें जनाचार्यों में मतभेद है। षटबंडागम-सूची मिथ्याव-भावके दमन या उपशमनसे प्राप्त होता है इस के रचयिना भूतबनी प्राचार्यका मत है कि उपशाम-श्रेणीमे लिये इसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। उतरा हुश्रा जीव मामादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता। किन्तु यह उपशम सम्यक्त्व दीकाल तक टिकता इस मनका उल्लेख लब्धियारकी निम्न गाथामें किया नहीं है। मिले हए मैलके नीचे बैठ जानेसे जो पानी शुद्ध गया हैहोता है उसके जरासे हिल जाने पर वह मैल फिर ऊपर उठ उवसममेढीदी पुगा आदिएगो मासगां गा पापुरादि । माता है और मारे पानीको पुनः गंदला कर देता है । उत्पी भूदलिगाणिम्मलमुनस्स फुडायदेमंग ।। ३४८॥ प्रकार यह उपशम सम्यक्त्व एक अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रह किन्तु कम्पायपाहुडके चणिसूत्रोंके रचयिता यतिवृषभ पाता और पश्चात् पूर्व संस्कारोंके प्राबल्य जीवका पुनः प्राचार्यका मत है कि उपशम श्रेणीसे उत्तर कर जीव मिथ्यात्व मा गिरना संभव है। जिस समय जीव तीव असंयत सम्यगष्टी भी हो सकता है. देशसंयमी भी हो कषायके वशसे सम्यक्रवसे तो रुयुत हो जाता है किन्नु ___ मकता है और मावादम-गुणस्थानवर्ती भी हो सकता है। मिथ्यात्व तक नहीं पहुँच पाता उसी अल्पकालीन अन्तराल और इस सासादन गुणस्थानसे ही यदि उमका मरण अवस्थाको सामादन भाव कहते हैं । इस अवस्थामें सम्य- हुमा तो वह एकमात्र देव गतिको ही जाता है। नरक, परवका भाभाव होने पर भी भूतपूर्व न्यायानुसार उसे नियंच व मनुष्य गनिमें नहीं जाता, क्योंकि इन तीन सम्यवस्व ही कहते हैं, क्यों कि मिथ्यात्वभावका तो अभी गतियोंकी पायुको बांध लेने वाला जीव तो मोहकर्मका पुनः उलय ही नहीं हो पाया। उपशम ही नहीं करता। यह मत लम्धिमारकी निम्न तीन कभी कोई उपशम सम्यस्थी जीव उपशम सम्यक्त्वमे गायानोंमें प्रकट किया गया हैव्युत्त होकर भी अपनेको सम्हास लेते हैं और पुनः मिथ्या- तस्सम्मत्तद्वाए असंजमं देशमंजमं वा पि । स्वी होनेसे बच जाते हैं। मिथ्यात्वका एक प्रति विद्युब गच्छेज्जावलिबके ममे सासगागुणं वापि ॥ ३४५।।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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