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________________ ७० अनेकान्त [वर्ष ६ जदिमरदि सामगो मो हिरय-तिरिक्खणरंण गच्छेदि इन छह सूत्रोंकी जयवक्ता प्रबग क्षग टीका की णियमा देवं गादि जायसहमुगिदवयणेण ॥३४६ ।। गयी है। गरयतिरिकाब-रागसत्तो सक्कोण मोहमुवसमिदूं। जीवडाणकी गति-भागति चूक्षिकाके सूत्र की टीका तम्हा तिसुवि गदीसुण तस्म उप्पज्जणं होदि ॥ ३४७॥ करते हुए धवलाकारने यह बतलाया है कि किस प्रकार पखंडागमकी धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यने देव या नारकी जीव सम्यक्त्वसहित मनुष्यगतिमें प्रवेश इसी मतभेदका उल्लेख 'जीवहाया' खंडकी सम्यक्त्वोत्पत्ति करके सासादन-गुणस्थान-सहित ही वहांसे निर्गमन भी चूलिकामें इस प्रकार किया है कर सकते हैं। यहां उन्होंने कहा है कि सम्यक्त्व-सहित "एदिस्से उवममसम्मत्तद्धाए अब्भंतरादो असंजमं मनुष्यगतिमें प्राकर उपशमश्रेणी चढ़ कर पुनः नीचे उत्तर पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज, छम् आलि- कर सासादन गुणस्थानमें पहुँचने और वहीं पर मरण करने यासु सेमासु आमाणं पि गच्छेज । आमाणं पुण गदो वाले जीवोंमें उक्त बात घटित हो जाती है। यहाँ पर जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणु- धवलाकार स्पष्टीकरण करते हैंसगदि वा गंतं, णियमा देवगदिं गच्छदि । एसो "एवं पाहुडसुत्ताभिप्रापण भणिद। जीवहाणापाहडचुरिगामुत्ताभिप्पाओ । भूदलिभयवंतस्सुव भिप्पारण पुण संखेज्जवम्साउपसु ण संभवर्वाद, उवएसेण उवममसेडीदो ओदिएणो ण मासणतं पडि- समसेडीदो ओदिएणस्स सामणगुणगमणाभावा । एत्थ वजदि। हंदि तिसु आउएसु एक्कण वि बद्धेण ण पुण संखेज्जासंखेजवस्साउए मोसुण जेण भणि सको कमाए जवसामेदु, तेग्ण कारणेण णिरय-तिरि- तेणेदं घडदे।" क्ख-मणुसगदीश्रो ण गच्छदि"। अर्थात्--यहां जो उपशम श्रेणी चढ़ कर उतरते हुए सब्धिसारकी उपर्युक्त चारों गाथाएं ठीक इन्ही वाक्यों सासादन गुणास्थानसे मरण कर निर्गमनकी बात कही है की रूपान्तर है। केवल जहां वीरसेन स्वामीने पाहुडचुरिण- वह कषाय प्राभृतके चर्णिसूओंके अभिप्रायसे कही गयी है। मुत्तका उल्लेख किया है वहां लब्धिसारके कर्त्ताने पाहु किन्तु जीवट्ठाणके अभिप्रायसे संख्यातवर्षायुषाले मनुष्योंमें णिसूत्रके कर्ता यतिवृषभ मुनीन्द्रका नामोल्लेख कर दिया यह बात संभव नहीं हो सकती, क्योंकि जो जीव उपशमहै। और वीरसेनस्थामीने तो यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्र श्रेणीसे उत्तरा है वह सासावन गुणस्थानमें पहुँच ही नहीं प्रायः जैसे तैसे उदृत किये हैं, क्यों कि उनके उपर्युक्त सकता। किन्तु यहाँ संख्यात व असंख्यात वर्ष भायुओंकी वाक्प जयभवनान्तर्गत चूर्णिसूत्रोंमें इस प्रकार पाये जाते है- अपेक्षा न करके सामान्यसे कहा गया है, जिससे उक्त बात __ "एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धार अभंतरदो असंजमं घटित हो जाती है। पिगकछेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज दोवि गच्छेज। भूतबलि भाचार्यका यह मत कि उपशमश्रेणीसे उत्तर छम श्रावलियासु सेमासु आसाणं पि गच्छेज। कर जीव सासादन गुणस्थानमें नहीं जाता, जीवट्ठायमें कहीं पासाणं पुरण गदो जदि मरदिण सक्को गिरयगदि पृथक् और स्पष्ट रूपसे नहीं पाया जाता। किन्तु उनके उक्त तिरिक्खगदि मणुसगदि वा गंतु, णियमा देवगविं अभिप्रायका पता उनकी स्पर्शन प्ररूपणके सूत्र • से गच्छदि । इंदि तिसुभाउपमु एकण वि बद्धण आउ- सगता है जहां उन्होंने एक जीवकी अपेक्षा सासादन सम्बगेण ण सको फसाए उपसामेढुं। कुदो, देवाउ __ग्रष्टिका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग मोत्तण सेसाणं तिहमाउभारणं मज्झे एकण विभाउ- बतखाया है-'एगजीवं पडुप जहरणेण पलिदोषमस्स एण बद्धण उवसमसेढिसमारोहणस्स अच्चंताभावेण असंखेजदिमागो' सी अन्तरक प्रमाणकी उपपत्ति पदिसिद्धत्तादो । एदेण कारणेण णिरयगदि-तिरिक्ख- बतलाते हुए पवनाकारने प्रश्न उठाया है किजोणि-मणुस्सगदीयो ण गच्छदि।" "सासापच्छायदमिच्छाडि संजमं गेएहाविय (अमरावती, प्रति पत्र १०५७) दसतियमुवसामिय पुणो चरितमोहमुक्सामेदूण
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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