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________________ १८ अनेकान्त [वर्ष ६ प्रति प्रेमको परिचायक हैं। भगवान पार्श्वनायकी एक मूर्ति सुन्दर आँगन है। भालकल इसमें गवालियर-पुरातत्वतो ५७ फीट ऊँची है, उसका भी मुखाग्र भाग खंडित हो विभागका प्रदर्शिनी-भवन है। जानेसे उसकी सुन्दरता कम होगई है। महाराज मानसिंहकी दूसरी प्रसिद्ध रचना मान-मन्दिर प्रतिवर्ष जेनियोंका किलेमें एक मेला होता है । सम्पूर्ण है। यह ठेठ गवालियर दरवाजेके ऊपर है। इसकी भव्यता भारतके जेनी उस समय यहाँ एकत्रित होते हैं। कुछ भव्य और विशालनाका अाभास दूरसे ही होने लगता है। इसका मूत्तियोंको सुधरवा लिया है। सबसे बड़ी मूर्तिका भी मुस्खाग्र बाहरी दीवार १०० फीट ऊंची और ३०० फीट लम्बी है। भाग ठीक कर लिया गया है। परन्तु श्राजकलके कलाकार उसपर अति सुन्दर विभिन्न रंग मिश्रित वेलबूटे खिंचे हुए उसे उतना भव्य और स्वाभाविक बनाने में सफल नहीं हुए. _ हैं। इस महल में तीन खन हैं। दो वन पृथ्वीके अन्दर हैं। जितने कि हमारे पूर्वज ये। नये पुरानेपनका अन्तर प्रत्यक्ष सबसे नीचेके वन में एक जलाशय है । अन्य दर्शनीय दृष्टिगोचर होजाता है। मूर्तियों के कारण गवालियर किलेका वस्तुत्रों में पूजा-गृह और उसकी छोटी २ जालियाँ, आँगन गौरव अधिक बढ़ गया है। गवालियरका किला जैनियोंका अंपुर श्रादि हैं। कहते हैं महल मेंसे दिल्ली, आगरा, तीर्थ स्थान बन गया है, अन्य धर्मावलम्बियांक लिए भी ये नरवर आदि नानेकी सुरंगें हैं। मूर्तियां दर्शन'य है । वे ललित-कलाश्रोम अपने पूर्वजोंके सन् १५२६ में हुमायूँ ने गवालियरको जीतकर मुग़ल हस्तकला-कौशल तथा उनकी पहँच और औजारोंक उचित राज्यमें मिला लिया और १७६१ तक मुग़लोका दुर्गपर प्रयोगकी सफलता प्रदर्शित करती हैं। अधिकार रहा । सन् १७६१ में गोहदाधीश राना लोकेन्द्रडूंगरसिंह के अवशेष कार्यको उनके प्रतापशाली पुत्र सिंहजीने किलेपर अपना अधिकार कर लिया, पर वे अधिक समय तक गढ़को अपने श्राधीन न रख सके । सन् १७६५ कर्णसिंहनं पूरा किया। राजा कर्णसिंह भी पिताके समान में प्रपशाली महाराज महादजी सेंघियाने राना लोकेन्द्रसिंह तेजस्वी योद्धा निकले। उनके समयमें गवालियरकी धाक को हराकर गढ़पर मरहठोंका झण्डा फहरा दिया; उस चितौड़के समान जम गई थी। किंकर्तव्य विमूद दिल्ली समयसे आज तक किले पर सेंधिया वंशका ही अधिकार है। नरेशोंको गवालियर-नरेशका कृपाभिलाषी बनना पड़ा था। इन ऐतिहासिक घटना-चक्रों के संकलन और अन्वेषण महाराज मानसिंह इस वंशमें सबसे प्रसिद्ध राजा हुए से यह स्पष्ट नया प्रमाणित हो जाता है कि सन् १३६८ से है। आप बड़े न्याय-प्रिय तथा उदार थे । वीरना, बन, १५२८ तक १३० वर्ष गवालियर जैन धर्मावलम्बी शासकों. वैभवमें श्राप अद्वितीय थे। इन्होने अपनी गनी मृगनयनाके । द्वारा शासित रहा है। लिए जो महल बनवाया था वह अब भी गूजरी महलके सन् १३६८ से पूर्व गवालियरमें जैनियोंकी कितनी नामसे प्रसिद्ध है। यह महल बड़ा सुन्दर है। इसमें भीतर ___ मान्यता रही है, यह ऐतिहासिक विशेषज्ञांकी सम्मतियों, जानेका केवल एक ही मार्ग है। दरवाजेके ऊपर छज्जेपर प्राचीन शिलालेखों तथा पुरातत्व विभागकी रिपोर्टोके एक भीमकाय हाथीकी प्रतिमा रक्खी हैं ! भीतर एक बड़ा आधारपर पुनः लिखनेका प्रयत्न करूँगा। सहारा ! (ले०-राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश' आयुर्वेदाचार्य) दुनियांमें दुनिया वालोंने देख मुझे दुत्कारा! मेरे उरमें दुख श्यामल धन सा बन कर छा जाता देख रहा हूं, रोती आँखोंसे दुनियांका मेला और व्यथाकी बिजलीकी मैं चमक न उसमें पाता हैं अभाव मेरे साथी पर फिर भी सदा अकेला गला घोटनी सीमाती है वह मुझमें व्याकुलता अपमानोंने याद भुनादी क्या देखा ! क्या पाया! मैं तिल तिल कर प्रति क्षण ही हैं,बस प्रदीप सा जलता अरमानों की धुघली सी बस एक शेष है छाया बहने लग जाती है परवश हाय ! हगोंसे धारा मिल जाये मैं हूँद बाहूं कोई मेरा प्यारा मुके न कहीं सहारा ! मुझे न कहीं सहारा!
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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