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________________ हिन्दीका प्रथम आत्म-चरित [ लेखक-पं० बनारमीदास चतुर्वेदी] - - सन् १६४९-- शरीरको जीवित रखने में समर्थ होगी। कोई तीनसौ वर्ष पहिलेकी बात है। एक भावुक कविवर बनारसीदासके माम-चरित 'अर्धकथानक' को हिन्दी कविके मनमें नाना प्रकारके विचार उठ रहे थे। माद्योपान्त पढ़ने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं जीवनके अनेक उतार चढ़ाव वे देख चुके थे। अनेकों कि हिन्दी साहित्यके इतिहासमै इस ग्रन्थका एक विशेष संकटोंसे वे गुजर चुके थे, कई बार बाल-बाल बचे थे। स्थान तो होगा ही. साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति कभी चोरों डाकुचोंके हाथ जान माल खोने की आशंका थी विद्यमान है जो इसे अभी कई सौ वर्ष और कीवित रखने तो कभी शूली पर चढ़नेकी नौबत आने वाली थी और कई में सर्वथा समर्थ होगी। सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता निरभिबार भयंकर बीमारियोंसे मरणासन्न होगये थे। गाई स्थिक मानता और स्वाभाविकताका ऐसा जबर्दस्त पुट इसमें दुर्घटनाओं का शिकार उन्हें अनेकों बार होना पड़ा था. एक विद्यमान है, भाषा इस पुस्तककी इतनी सरल है और के बाद एक उनकी दो पत्नियों की मृत्यु हो चुकी थी और साथ ही यह इतनी संक्षिप्त भी है, कि साहित्यको चिरउनके नौ बरचाममे एक भी जीवित नही रहा था! अपने स्थायी सम्पत्तिमें इसकी गवाना अवश्यमेव होगी। हिन्दी जीवन में उन्होंने अनेकों रंग देखे ये-तरह तरहके खेल का तो यह सर्वप्रथम प्रामचरित है ही, पर अन्य भारतीय खेले थे-कभी वे पाशिकीके रंगमें सराबोर रहे थे तो कभी भाषाओं में इस प्रकारकी और इतनी पुरानी पुस्तक मिलना धार्मिकनाकी धुन उनपर सवार थी और एक बार तो श्रा- आसान नहीं। और सबसे अधिक माश्चर्यकी बात पर है ध्यात्मिक फिटके वशीभूत होकर वर्षों के परिश्रमसे लिखा कि कविवर बनारसीदाम्पका दृष्टिकोण प्राधुनिक प्रारमति. अपना नवरसका अन्ध गोमती नदीके हवाले कर दिया था! लेखकोंके दृष्टिकोगासे बिल्कुल मिलता जुलता है। अपने तत्कालीन साहित्यिक जगतमें उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा मिल चारित्रिक दोषोंपर उन्होंने पदों नहीं डाला है, बल्कि उन चुकी थी और यदि किम्बदन्तियों पर विश्वास किया जाय का विवरण इस खूबीके साथ किया है कि मानों कोई तो उन्हें महाकवि तुलसीदासके सत्पङ्गका सौभाग्य ही प्राप्त वैज्ञानिक तटस्थवृत्तिसे कोई विश्लेषण कर रहा हो। नहीं हुया या बल्कि उनसे यह सार्टीफिकेट भी मिला था मारमाकी ऐसी चीर फाड कोई अत्यन्त कुशल साहित्यिक कि आपकी कविता मुझे बहुत प्रिय लगी है। सुना है कि मर्जन ही कर सकता था और यद्यपि कविवर बनारसीदास शाहजहाँ बादशाहके साथ शतरज खेलनेका अवसर भी जी एक भावुक व्यक्ति थे-गोमती में अपने ग्रन्थको प्रवाहित उन्हें प्रायः मिलता रहा था। सम्बत् १६० (सन् १६४१) कर देना और सम्राट अकबरकी मृत्युका समाचार सुनकर में अपनी तृतीय पत्नीके साथ बैठे हुए और अपने चित्र मूर्षित हो जाना उनकी भावुकताके प्रमाण हैं-तथापि विचित्र जीवन पर रष्टिनाते हुए यदि उन्हें किसी दिन प्रात्म- इस यात्मचरितमें उन्होंने भावुकताको स्थान नहीं दिया। चरितका विचार सूझा होतो उसमें आश्चर्यकोई बात नहीं। अपनी दो पत्नियों, दो लड़कियों और सात लडकों की नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोइ । मृत्युका जिक्र करते हुए उन्होंने केवल यही कहा है:ज्यों तरवर पतझार है, रहें हूँठसे होइ॥ तत्त्वदृष्टि जो देखिये, सत्यारथकी भांति। अपने जीवनके पतझड़के दिनों में लिखी हुई इस छोटी ज्यों जाको परिगह घटै, त्यों तौ उपसांनि । सी पुस्तककसे यह माशा उन्होंने स्वम में भी न की होगी यह दोहा पदकर हमें ग्रिन्स क्रोपाटकिनकी प्रादर्श कि वह कई सौ वर्ष तक हिन्दी जगतमें उनके यशः लेखशैलीकी याद मा गई। उनका प्रारमचरित उन्नीसवीं
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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