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________________ १२२ अनेकान्त [वर्ष ६ तृष्णा बढ़ती रहती है । सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समय के लिये) शरीरके संतापको मिटाने में निमित्तमात्र हैं-तृष्णारूप अग्निज्वालाश्रीको शान्त करने में समर्थ नहीं होते। यह सब जानकर हे आत्मवन्-इन्द्रियविजेता भगवन् !-श्राप विषय-सौख्यसे पराङ्मुख हुए है-पारने चक्रनित्वकी सम्पूर्ण विभूतिको हेय समझते हुए उनसे मुख मोड़ कर अपना पूर्ण आत्मविकास सिद्ध करने के लिये स्वयं ही वैराग्य लिया है-जिनदीक्षा धारण की है।' बाह्यं तपः परमदुश्वरमाचरंस्थमाध्यास्मिकस्यतपमः परिबृंहणार्थम् ।। ध्यानं निरस्य कलुषव्यमुत्तरस्मिान् ध्यानद्वये बवृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥ ३ ॥ (वैराग्य लेकर) आपने आध्यात्मिक तरकी-श्रात्मध्यानकी--परिद्धिके लिये परमदुर बाहातपअनशनादिरूप घोर-दुर्द्धर तपश्चरण--किगा है। और (इस बातपश्चरणको करते हुए)श्राप प्रात-रौद्र-रूप दो कलुषित (खोटे) ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती-धर्म्य और शुक्ल नामक-दो सातिशय (प्रशस्त) ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं। हत्या स्वकर्म-कटुकप्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयाऽतिशयतेजमि जातवीर्यः। पभ्राजिषे सकलवेदविधेर्विनेता व्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥४॥ (सातिशय धान करते हुए हे कुन्थुजिन !) आप अपने कर्मोकी चार कटुक प्रकृतियोंको-ज्ञानावरण. दर्शनावरमा मोहनीय और अन्नराय नामके चार घातिया कर्मोको-रत्नत्रयकी-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यकनाग्त्रिकीसातिशय अग्निमें-परमशुक्लध्यानरूपवन्दिम-भस्म करके जातवीर्य हुए हैं-शक्त सम्पन्न बने हैं-और सकलवेद-विधिके-संपूर्ण लोकाऽलोक-विषयक-ज्ञान-विधायक श्रागमके-प्रणेता होकर ऐसे शोभायमान हुए हैं जैसे कि घनपटल-विहीन आकाशमें दीप्त-किरणोंको लिये हुए सूर्य शोभता है।' यस्मानमुनीन्द्र-तव लोकपितामहाद्या विद्या-विभूति-कणिकामपि नाप्तुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥५॥ -स्वयम्भू स्तोत्र 'हे मुनीन्द्र श्री कुन्युजिन ! चूँकि लोकपितामहादिक- ब्रह्मा-विष्णु-महेश-कपिल-सुगतादिक-आपकी विद्या ( केवलज्ञान ) की और विभूतिकी-समवसरणादि लक्ष्मीकी-एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए हैं, इस लिये आत्महित-साधनकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधीजन-जाणधादिक-पुनर्जन्मसे रहित श्राप अद्वितीय स्तुत्य (स्तुतिपात्र) की स्तुति करते है।" जगत्गुरु अनेकान्त जेण विणा लोगस वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडद । - तस्स भुवणेकगुरुणो एमो अनेगंतवायरस ॥१॥-सिद्धसेनाचार्य 'जिसके विना-जिसकी शिक्षाके अभावमें-लोकका व्यवहार भी-दुनियाका कारोबार भी-सर्वथा बन नहीं सकता-सब तरहसे मले प्रकार चल नहीं सकता-उस भुवनैक गुरु-जगतके असाधारण गुरु-अनेकान्तवादको नमस्कार हो।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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