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________________ बड़ा दानी कौन ? अनेकान्त-रस-लहरी [इस स्तम्भके नीचे लेख लिखने के लिये मैं शुरूसे ही विद्वानोंको आमंत्रित करता ना रहा हूं, परन्तु अभी तक किसीने भी इस ओर ध्यान देनेकी कृपा नहीं की। पिछली किरणमें लेख न जा सकनेका एक कारण जहां मेरा अनवकाश है वहाँ दूसग कारण मेरी यह जाननेकी रुचि भी है कि समाजके विद्वानोंके हृदयपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है-वे यह न समझ बैठे कि 'सम्पादकजी तो लिख ही रहे हैं. हमें इस ओर प्रयत्न करने की जरूरत नहीं।' मेरे ऊपर वीर-सेवा-मन्दिर-सम्बन्धी कार्योका इतना अधिक भार है कि मुझे जरा भी अवकाश नहीं मिलता और किसी दूमरे अावश्य ककार्यकी बलि चढ़ाये बगैर तो मैं ऐसे लेख लिख ही नहीं सकता। इसके सिवाय मैं समाजके बड़े-बड़े विद्वानों एवं साहित्य-कलाकागेंसे अधिक महत्व के लेखोंकी श्राशा लगाये हुए हूँ। श्राशा हे वे उसे शीघ्र पूरा करेंगे और इस लेग्व-मालाके सिलसिलेको बन्द नहीं होने देंगे। इसी श्राशाको लेकर और पाठकों की इस विषयके लेखोंको पढ़नेकी बढ़ती हुई रुचिको देखकर तथा यह खयाल करके कि उनकी उस रुचिकी पूर्ति अधिक व्याघात न होने पाए, मैं आज अपना यह तीसरा लेख उपस्थित कर रहा हूँ।] --सम्पादक [३] नहीं, और तीसरी बात यह कि रुपयोंका दान करनेवाला ही बड़ा दानी है, दूसरी किसी चीजका दान करने वाला बड़ा दानी नहीं। एक दिन अध्यापक वीरभद्ने कक्षामें पहुंचकर विद्या विद्यार्थी--मेरा यह मतलब नहीं कि दमी किसी धिोंसे पुछा-'बड़े-छोटेका जो तस्व तुम्हें कई दिनसे सम चीजका दान करनेवाला बड़ा दानी नहीं, यदि उस दूसरी झाया जारहा है उसे तुम खूब अच्छी तरह समझ गये हो चीज--जायदाद मकान वगैरहकी मालियत उतने रुपयों या कि नहीं?' विगार्थियों ने कहा--'हो, हम खूब अच्छी जितनी है तो उसका दान करने वाला भी उसी कोटिका तरह समझ गये हैं।' बढ़ा दानी है। 'अच्छा, यदि खूब अच्छी तरह समझ गये हो तो अध्यापक-जिस चीज़का मुख्य रुपयों न ओंका जा आज मेरे कुछ प्रश्नोंका उत्तर दो, और उत्तर देने में जो सके उसके विषयमें तुम क्या कहोगे? विद्यार्थी सबसे अधिक चतुर हो वह मेरे सामने पाजाय, विद्यार्थी-ऐसी कौन चेज़ है, जिसका मूल्य रुपयाम न शेष विद्यार्थी उत्तर देने में उसकी मदद कर सकते हैं, और ओंका जा सके। चाहें तो पुस्तक खोलकर उसकी भी मदद ले सकते हैं।' अध्यापक--नि:स्वार्थ प्रेम, सेवा और अभयदानादि: अध्यापक महोदयने कहा। अथवा क्रोधादि कषायोंका त्याग और दयाभावादि बहुरूसी इमपर मोहन नामका एक विद्यार्थी, जो कचामें सबसे ऐसी चीजें हैं जिनका मूल्य रुपयों में नहीं क्रौंका जा सकता। अधिक होशियार था, सामने भा गया और तब अध्यापक उदाहरण लिय एक मनुष्य नदीम इब रहा है, यह देख जीने पूछा-- कर तटपर खड़ा हुआ एक नौजवान जिसका पहलेसे उस 'बतलाओ, बदा दानी कौन है? बने वालेके साथ कोई सम्बंध नथा परिचय नहीं है, उस विद्यार्थी--जोलाखों रुपयोंका दान करे वह बड़ा दानी है? के दुःखसे व्याकुल हो उठता है, दयाका स्रोत उसके हृदय अध्यापक-तुम्हारे इस उत्तरसे तीन बातें फलित में फूट पड़ता है, मानवीय कर्तव्य उसे मा धर दबाता है होती है--एक तो यह कि दो चार हजार रुपयेका या लाख और वह अपने प्राणोंकी कोई पर्वाह न करता हुधा--जान रुपयेसे कमका दान करने वाला बदा दानी नहीं, दूसरी यह जोखों में डालकर भी-एकदम चढ़ी हुई नदीमें कूद पड़ता कि लाखोकी रकमका दान करने वालों में जो समान रकमके है और उस बने वाले मनुष्यका उद्धार करके उसे तटपर दानी हैं वे सरस्परमें समान है--उनमें कोई बदा-छोटा ले पाता है। उसके इस दयाभाव-परिणत प्रात्मत्याग और
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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