SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ॐ अहम् * PARAN वार्षिक मूल्य १) रु० एक किरण का मूल्य ।) नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ ' वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर वर्ष ६, किरण ४ ४ नवम्बर १९४३ S मार्गशीर्ष शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४७०, विक्रम सं० २००० समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ १७ ] श्रीकुन्थु-जिन-स्तोत्र कुन्थु-प्रभृत्यवित-मत्वदयकतानः कुन्थुजिनो ज्वर-जरा-मरणोपशान्ये । स्वं धर्मचक्रमिह वर्तयमि स्म भून्य भूत्वा पुग क्षितिपतीश्वर-चक्रपाणिः ॥१॥ 'कुन्थ्वादि सकल प्राणियों पर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए हे कुन्थुजिन ! आपने पहले (गृहस्थावस्थामें) राज्यविभूतिके निमित्त राजाओंके स्वामी चक्रवर्ती होकर बादको ज्वरादि रोग, जग (बुढ़ापा) और मरणको उपशान्तिरूप मुक्ति-वभूतिके लिये इस लोकमें धर्म-चक्रको प्रवर्तित किया है-अर्थात् - श्राप चक्रवर्ती और तीर्थकर दोनों पद को प्राप्त हुए हैं।' तषार्चिषः पग्दिहन न शान्निगसामिष्टेन्द्रियार्थ-विभवः पग्वृिद्धिरे। स्थिस्यैव काय-परितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत॥॥ 'तृष्णा (विषयाकाँक्षा) रूप अग्नि ज्वालाएँ स्वभावसे ही संतापित करती हैं। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रिय-विषयोंकी संपत्तिस-प्रचुर परिमाणमें संप्राप्तिस-नहीं होती, उल्टी वृद्धि ही होती है; क्यों कि वस्तुस्थिति ऐसी ही है-इन्द्रिय-विषयोंको जितना अधिक सेवन किया जाता है उतनी ही अधिक उनके और सेवनकी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy