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________________ १८८ अनेकान्त [वर्ष ६ चम करना, उसे प्रकाशकी रश्मियों अर्पित करना, उसे जीवनकी दिशा संसारके सन्मुख जैसा है वैसा ही चित्रित करना। इसी लिये मुख्तारजीने अपनी प्रवृत्तिके प्रवाहको श्री विद्यानन्दजी छछरौली साहित्यसेवा, साहित्य साधनाकी ओर प्रवाहित किया। धर्म-मानव जातिके उपतर मनकी चीज है, मनुण्यके साहित्य सेवाके उषा कालमें ही उन्होंने जान उपतर मनकी चेष्टा है जिसके द्वारा वह अपनी शक्तिभर लिया था कि वर्तमान परिस्थितिमें सच्ची साहित्य अपमेसे परेकी किसी वस्तुको प्राक्ष करना चाहता है, उस सेवा असंभव है क्योंकि भारतका विस्तृत और प्रचण्ड वस्तुको जिसे मानव जाति ईश्वर, परमात्मा. सत्य, श्रमा साहित्य तो जेलकी चहारदीवारियों तथा कालकोठ ज्ञान या अर्चना किसी प्रकारकी मिरपेच सत्ताके भामसे रियोंमें अपने शापित जीवनके विषैले क्षणोंको व्य- पुकारती है, जहाँ तक मामव ममकी पहुंच नहीं होने पर तीत करने के लिए विवश किया जा रहा है, उसकी भी वह जहाँ पहुंचनेकी चेष्टा करता रहता है-सचेष्टाका स्वतंत्रता उससे छीन ली गई है, उसकी स्वच्छन्दता नाम ही धर्म है। पर बंधनके मौ सौ अंकुश लगा दिए गए हैं, उसे श्री महावीर स्वामी संसारसे अलग होकर एकांतमें स्वच्छ वायुसेवन तथा रविरश्मिसे भी जो जीवनी चले गए ध्यान लगा कर बैठे उन्होंने संसारके दुःख और शक्तिके प्रधान अंग हैं बिलग रखा गया है। ऐसी कष्टोंसे यह सब जो रोग और मृत्यु, इच्छा और पाप एषं अवस्थामें सबी साहित्यसेवा क्या संभव थी! उन्होंने शुधा है उससे त्राण पानेका मार्ग निकाला। उनको एक निश्चय किया प्राचीन साहित्यक नूतन संस्कारका, उसे सत्यका दर्शन हवा और उन्होंने इस बातकी चेष्टा की कि पुनरुज्जीवित करनका, उसके पूर्ण उद्धारका, उसे वे इस सत्यको अपने इर्द गिर्द जमा हुवे अनुयापियों झठे धर्माभिमानियों तथा धर्मान्ध लोगोंकी गुदड़ीमें और शियोको बताएं और दें। हिपाहुना लाल न बना सर्वसुलभ, सुकुमार, सुंदर सभी धर्मोंका जन्म किमी महान जगद्गुरुके भावितथा लुभावना शिशु बनानेका जिससे भारतीके विको लेकर होता है। जगद्गुरु इस पृथ्वी पर पाते हैं मंदिर में पवित्र भाबसे सेवा श्रार भक्ति करने वाले सत्यको प्रकाशित करते हैं और स्वयं किसी भागवत सत्यके सचे साधकोंको वह उपलब्ध हो सके। पंडित जुगल मूर्तिमान अवतार होते हैं। परन्तु मनुष्य इस सत्य पर किशोरजी मुख्तारने इसी प्राचीन तथा बन्दी जीवन अपना ही कहजा जमा लेते हैं. इस परसे वे एक रोजगार व्यतीत करने वाले लोकोत्तर तथा उत्कृष्ट साहित्यको खड़ा कर लेते हैं और इसके द्वारा घे एक राजनीतिक संगमुक्त करनेका तथा उसके महान कर्ताओंको अमरत्व उन सा बना लेते हैं। मानवी मन अपनी चेष्टा अपनी ही प्रदान करनेका, जिन्हें संसार आज तक भूले बैठाया। इच्छा एवं हचिके अनुरूप उस परम सत्यकी ध्यानया करना उसे पकाशमें लानेका यह मत्प्रयत्न उन्होंने किया जिसे प्रारम्भ कर देते हैं इस प्रकारसे कालान्तरमें विख, निर्मल. देख सब दंग रह गए। उन्होंने इसके लिये अपने जीवन स्वयं प्रकाशके सामने धुंध प्राजानेसे लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं। केअनमोल तथा सर्वश्रेष्ठ ३६ वर्षोंको होम दिया और आज भी अपनी उसी अविश्रांत तथा अनवरत श्री महावीर स्वामी निर्वाखाके पश्चात् भी इसी प्रकार साधनामें लीन हैं। संसार उन्हें कुछ भी समझे वे दशा हुई। समयके हेरफेर तथा स्वार्थ और प्रज्ञानके कारण अपनी साधनाके मोती गम्फित करनमें लबलीन मिन प्रन्योंकी रचना तथा भित्र भित्र व्याख्याभोंसे जबता जैन समाजशास्तथा साहित्यके अद्वितीय मनीषी बढ़ती चली गई और विपथगामिता होती चली गई। और प्रगल्भ विज्ञान, प्राचीन संस्कृत, प्राकृतबादि भाषा ऐसे विकट समबमें ही कोई विभूति-शालि उस परम ओंके प्रकारड पण्डित, इतिहासके अपूर्वतत्वज्ञ, पुरा- सत्यकी मजकको अपनी बारमा प्राप्त कर उस परम प्रकाव्य तत्वके प्रखर समालोचक, भारतीय संपादकोंमंशिर- की ओर अग्रसर होते है। इन्हीं विभूविशादि पुरुषों से मणि श्रद्धेय श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार चिरायु हों! श्री जुगल किशोर मुख्तार ।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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