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________________ बंधा र धारा श्री पुरुषोत्तम मुरारका 'साहित्यरत्न' तथा श्री जमनालाल जैन 'विशारद' स्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं के विशाल जैन हमारे सन्मुम्ब इस भव्य प्रादर्शको रख सकते हैं कि साहित्यको जो अभी तक अमा के अंधकारमें, धर्म और माहित्यकी सेवाका पथ स्वार्थ के संकुचित सहस्राब्द तथा शताब्दियोंस, पवेस्नानका आनन्दोप- पथपरसे होकर नहीं जाता, वह तो निगभिमान, भोग कर रहा था प्रकाशमें लानेका श्रेय जिन अंगु- सात्विक त्याग राजमार्गपरसहोकर ही निकलता है। लिकापर गिनने योग्य विद्वानो तथा महारथियोंको है __ भारतीय साहित्यके लिए जितना परिश्रम सर उनमें श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका स्थान रामकृष्ण भांगरकर, श्री सर देसाई, डा० काशीप्रसाद अत्यन्त ऊँचा है। उनके जीवनक बहुमूल्य ३६ वर्ष जायमवाल, सर गधाकृष्णन तथा श्री दितिमोहनजी निस्वार्थभावसं साधना और तपस्या कर धर्म और सेन शास्त्री आदि महारथियोंन किया है अथवा कर संस्कृतिकी ज्योतिको, उसके वास्तविक स्वरूपको, उस रहे हैं, उसी कोटिमें मुख्तारजीका परिश्रम स्तुत्य है। की छिपी हुई आभाको, उसके सात्विक सौंदर्यको जो मुख्तारजीका विचार सदेव जैनसाहित्यके अनुसंधान समयके दूषित प्रभावसे विलीन होने जा रहा था, तथा गवेषणा द्वारा, उसके प्रकाशन द्वारा गौरवमयी जीवनरहित हो अचेतन होनेकी ओर आकृष्ट हो रहा प्राचीन भारतीयसंस्कृति, जो परवशताके पाशके था, अपनी स्वार्थशून्य सेवापरायण प्रवृत्ति द्वारा सजी कारण आज विस्मृतिकी वस्तु बन गई थी, प्रकाशमें वता प्रदान करने में लगे। ला उसकी महानताका दर्शन करा हमें सजग करनेका अनेकान्तका प्रकाशन तथा उसका पक्षपातशून्य रहा है। मुख्तारजीने गवेषणा तथा अनुसंधानको ही संपादन मुख्तारजीकी स्वार्शरहित सेवाका एक सुन्दर अपना प्रधान कार्य क्यों चुना १वे पुरातत्वकी खोज अंग है। हमारे समाज और साहित्यमें पत्रों तथा की ओर ही क्यों इतने अधिक आकृष्ट हुए ? इसका सम्पादकोंकी कोई कमी नहीं, किन्तु उनमें कितने ऐसे कारण है उनका सुदक्ष विचार तथा देशभक्त हृदय। है जिन्होंने सदैव अपनी आत्माकी पुकार सुनी, अपने उन्होंने जान लिया था कि भारतका अतीत महान था, सिद्धान्तोंकी प्रतिमा ही सदैव अपने अंतःकरणमें वह आज भी महान है तथा उसका भविष्य भी देखी, उसके सम्मुख भेदभाव तथा पक्षपातका समस्त अत्यन्त महान तथा उज्ज्वल है। सुवर्णप्रासाद खंडहरोंमें परिणत कर दिया ! हमारे संपादकोंमें कितने ऐसे हैं जिन्हें श्री जुगलकिशोरजी श्री जुगलकिशोरजीके हृदयमें स्वभावतः ही तथा पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदीकी श्रेणीमें रखनेका समाजप्रेम, साहित्यप्रेम, धर्मप्रेम तथा विश्वप्रेमकी साहस किया जा सके ! भाग सुलग रही थी। मुख्तारजीका हृदय उन्हें बार चार उनके मनकी वाणी तथा अंतःकरणकी पुकार ___श्रद्धेय श्री मुख्तारजीके जीवनका एक एक क्षण, सुनने के लिए आकुल कर रहा था। उनके लिये देश उनके जीवनका एक एक पल, हमारे लिए एक भव्य सेवाका सर्वश्रेष्ठ पथ था धर्मसेवा और धर्मसेवाका आवशेकी वस्तु है। उनकी कठिन तपस्या नवयुवकों में सर्वश्रेष्ठ मार्ग था साहित्यमवा और साहित्यसेवाका उत्साह और उमंगकी आंधी उठा सकती है, अविश्रांत सर्वश्रेष्ठ उपाय था उसे संजीवन प्रदान करना, उसे कर्मण्यता हमारे अकर्मण्य युवकोंमें यौवनकी शक्ति मुक्तिप्रदान करना, उसके सत्यरूपको असतके प्रभाव का सदुपयोग करनेकी और उन्हें आकर्षित कर सकती के कारण जो अभी अंधकारमें है, प्रकाशमें लाना, है, उनकी निस्वार्थे रागरहित धर्म और साहित्यसेवा उसकी छिपी, निखरी तथा विस्मृत शक्तियोंका प्रदर्शन
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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