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________________ केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा (लेम्बक न्यायाचार्य पं० माणिकचन्द कौन्देय) पुरने प्रतिपत्ति इस प्रकार में जितने भी लक्षण किो प्रातः ।। कुछ महीने हुए वा. रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुरने प्रतिपत्ति इस प्रकार हैहमारे सामने एक प्रभ उपस्थित किया था, जो इस प्रकार है- शास्त्र में या लोकमें जितने भी लक्षण किये जाते है "क्या केवलशानसे कुछ ज्ञेय कूट जाता है?" उनमें प्रश्नवशात् या कल्पना ये पद कभी नहीं पाते है। यह प्रश्न गंभीर है, केवलशानकी विषय-मर्यादासे "जपयोगो लक्षएम" "शृंगसास्नाबान् गौः" जीवको सम्बन्ध रखता है और इसलिये इसपर युक्ति तथा आगम। लक्षण उपयोग है। सींग और गल कम्बल वाला बैल की सहायता साथ गहराईसे विचार करके हमने जो कुछ होता है। इन लक्षणोंमें प्रश्नके वश होकर या कल्पना मालूम किया है उसे आज हम इस लेख-द्वारा अनेकान्त- खड़ी कर लेना ऐसे लचकदार पद नहीं डाले गये हैं। अत: पाठकों के सामने रखते हैं, जिससे उक्त बाबू साहबका ही प्रतीत होता है कि सप्तभंगीएक कल्पना ही है। कुछ व्युत्पत्ति नहीं किन्तु उन-जैसी शंका रखनेवाले दूसरे सजनोंका भी बढ़ाने वाले लौकिक जन इस रचनासे लाभ उठा लेते हैं। समाधान होसके अथवा विद्वानोंद्वारा चर्चित हो कर यह स्व-चतुष्टयसे घड़ेका अस्तित्व-धर्म और पर-चतुष्टयसे विषय और अधिक प्रकाशमें लाया जा सके। घटका नास्तित्व-धर्म कोई अविभाग-प्रतिच्छेदोका घारी 'सर्वद्रव्य-पर्यायेषु कंवलस्य' यह श्री उमास्वामी महा- पर्याय अथवा गुण या द्रव्य, नहीं है। केवल कल्पित धर्म राजका निीत सिद्धान्त है। इसके अनुसार वस्तुभूत और हैं। यह ख्याल रखना कि जो सामान्य-गुणोंमें वस्तुको पर्याय-पर्यायी-स्वरूप माने गये त्रिकालवर्ती द्रव्य, गुण और तीनो कालमें स्थिर रखने वाला अस्तित्व गुण और जो पर्यायोंको केवलशान जानता है। द्रव्योंमें अशुद्ध द्रव्य और कि प्रतिक्षण परिणामी है वह अनुजीवी गुण इस अस्तित्वपर्यायशक्तियाँ तथा पर्यायोंमें अविभागप्रतिच्छेद भी गिन धर्मसे सर्वथा निराला वस्तुभून है। अस्तित्व गुणके साथ लिये जाते हैं। विशेष प्रतिपादन यह है कि प्रत्येक द्रव्य नास्तित्व गुण कथमपि नहीं ठहर सकता है। जैसे कि द्रव्यल में केवलान्वयी होकर पाये जाने वाले प्रमेयत्व गुणकी के साथ अद्रव्यत्व और वस्तुत्व के साथ अवस्तुल गुण कोई परिणति अनेक प्रकार है। मतिशान करके ज्ञेय ोजाना वस्तुमें जड़ा हुश्रा नहीं है। क्योंकि अद्रव्यत्व, अंवस्तुत्व या पृथक् तत्व है और केवलशान द्वारा प्रमिति-विषय होजाना नास्तित्व कोई अनुजीवी गुण ही नहीं है। इसी प्रकार पदायों में जुदी बात है। मतिज्ञानी जीव इन्द्रियजन्यशानद्वारा लड्डु इष्टता अनिश्ता भी कल्पित है। जो आज इं है वही चीज रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शको जानना। किन्तु केवलज्ञान- हमको कल अनिष्ट हो जाती है, दूसरे व्यक्तिको उसी समय वह द्वारा मोदकृके रूपादिको प्रत्यक्ष कर लेना विशेषता रखता अनिष्ट पड़ जाती है। किन्तु श्रुतज्ञानी जीव पदाथों में प्रापेक्षिक है। यो ऐन्द्रियिक ज्ञानकी विषयतासे केवलज्ञान प्रश्ता है। अस्तित्व, नास्तित्व या इष्टत्व, अनिष्टत्व जान रहा है। मिथ्याशानों-अर्षमियाज्ञानोके विषय वहाँ संकलित नहीं है। केवलज्ञानी ऐसे फोकट धर्माको नहीं मानता है। ऐसी नृत्य, गान, वादित्र प्रादिके लौकिक सुख-संवेदन-परि- परिस्थिति में हम श्रतज्ञानीको मिथ्याशानी या केवलशानीको यतिसे भो केवलशान रीता है। प्रागमगम्य अनंत प्रमेयोंको अल्पज्ञ होजानेका उपालंभ नहीं दे सकते हैं। क्योकि केवलज्ञान विशद जानता है। किन्तु इसी मनिशानके प्रक्रम श्री अकलंकदेवने "यावन्ति कार्याणि तावन्तः स्वभावअनुसार भुवज्ञान के विषय माने गये कतिपय स्वभावों और धमों भेवा" और श्रीविद्यानन्दने "यावन्ति पररूपाणि पर केवलशानका अधिकार नहीं है। सप्तमंगी, स्याद्वाद, तावन्त्येव प्रत्यात्मम् स्वभावान्तराणि तथापरिणामापेक्षिक-धर्म, नयवाद अन्य व्यावृत्तियां श्रारोपित स्वभाव ये मात्" इत्यादि वाक्यों द्वारा बस्तुकै सिरपर अनेक स्वभाव सब भी अनशानके परिकर हैं। श्रीराजबार्तिक में सप्तभंगीका लाद दिये हैं। उन्हें जैसे हो। तैसे मानना ही चाहिये । लवण "प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रति- 'देवदत्तक सिरपरसे एक क्षणको भी अन्यभाष, सोभाव धविकल्पना समभंगी"ऐसा किया गया है। इसकी सिंहाभावको हटा दिया तो उसी समय जाज्वल्यमान बाग,
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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