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[किरण १२
क्या रलकरएड-श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?
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जमीन, स्वर्ण और खेत श्रादिके देनेका उपदेश पाया जानेसे ३-मा. सोमदेव (वि.सं.१०१६)के यशस्तिनकयह भहारकीय युगकी रचना जान पड़ती है। अत: रत्न- में रत्नकरण्ड-श्रावकाचारका कितना ही उपयोग हुमा मालाका समय वि. की" वीं शताब्दीसे पूर्व सिद्ध नहीं जिसके दोनमने इस प्रकार हैं:-- होता, जब कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ताके स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। अस्तित्वका समय विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्वका ही सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धौ धामिकैविना ।। प्रसिद्ध होता है। जैसा कि नीचेके कुछ प्रमाणसे प्रकट है
-रत्नकर०२६ -वि. की१वीं शतानीके विद्वान् प्रा. वादि- यो मदात्समयस्थानामवह्लादेन मोदते। राजने अपने पार्श्वनाथचरितमें रत्नकरण्ड-श्रावकाचारका स नूनं धर्महा यस्मान्न धौ धामिकेविना ।। स्पष्ट नामोल्लेख किया है. जिससे प्रकट है कि रत्नकरण्ड
-यशस्तिलक पृ०४१४ वि. की "वीं शताब्दी (१०२ वि०) से पूर्वकी रचना
नियमो यमश्च विहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारे । है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी तभी वह
नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ।। वादिराजके सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कृति
रत्नकर०६७ समझी जाती रही कि प्रा. वादिराज स्वयं उसे 'अक्षय
यमच नियमश्चेति द्वे त्याज्ये वस्तुनी स्मृते । सुखावह बतलाते हैं और 'दिष्टः' कह कर उसे पागम
यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः।। होनेका संकेत करते हैं।
__ --यशस्ति० पृ०४०३ २-१वीं शताब्दीके ही विद्वान् और वादिराजके
इससे साफ है कि रत्नकरण्ड और उसके कर्मका कुछ समय पूर्ववर्ती प्रा. प्रभाचन्द्रने प्रस्तुत ग्रन्थपर एक
अस्तित्व सोमदेव (वि० १०१६) से पूर्वका है। ख्यात टीका लिखी है जो माणिकचन्द्र ग्रंथमालामै रत्न.
४-विक्रमकी ७ वीं शताब्दीके प्रा. सिद्धसेन दिवाकरण्डके साथ प्रकाशित हो चुकी है और जिससे भी प्रकट
करके प्रसिद्ध 'न्यायावतार' प्रन्थमें रत्नकरयड-श्रावकाचारका है कि यह ग्रन्थ १० वीं सदीसे पूर्वका है। श्रीप्र माचन्द्रने
'प्राप्तीपज्ञमनुल्लंध्य' श्लो.. ज्योंका त्यों पाया जाता इस प्रन्थको स्वामी समन्तभद्रकृत स्पष्ट लिखा है। यथा
है, जो दोनों ही ग्रंोंके संदर्भोका ध्यानसे समीक्षण करने 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्न
पर नि:पंदेह रत्नकरण्डका ही पच स्पष्ट प्रतीत होता है। करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरलानां पाजनोपायभूतं रन
रत्नकरण्डमें जहां वह स्थित है वहां उसका मूलरूपसे करण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामी.............।
होना अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु यह स्थिति न्यायावतारअतः इन दो स्पष्ट समकालीन मल्लेखोसे यह
के लिये नहीं है, वहां यह श्लोक मूलरूपमें न मी रहे तो भी निश्रितहै कि रत्नकरण्ड १वीं शताब्दीके पहिलेकी
अन्यका कथन भंग नहीं होता। क्योंकि वहां परोक्षप्रमाणरचना है, उत्तरकालीन नहीं।
के अनुमान' और 'शाब्द' ऐसे दो भेदोंको बतलाकर स्वार्थासर्वमेव विधिजेन: प्रमाणं लौकिक: सताम् ।
नुमानके कथनके बाद 'स्वार्थ 'शाब्द' का कथन करने के लिये यत्र न व्रतहानिःस्मात्सम्यक्त्वस्य च खंडनम् ।।
श्लोक - रचा गया है और इसके बाद उपर्युक्त प्राप्तीपज्ञ' -रत्नमाला ६५
श्लोक दिया गया है। परार्थ शाब्द और परार्थ अनुमानको २ गोभूमिस्वर्णकच्छादिदानं वसतयेऽर्हताम् ।-रत्नमाला
बतलाने के लिये भीभागे स्वतंत्र स्वतंत्र श्लोक हैं अत: यह पथ ३ त्यागी स एव योगीन्द्रः येनाक्षय्यसुखावहः ।
श्लोक ८ में उक्त विषयके समर्थनार्थ ही नकाराखसे अपअर्थिने भव्यर्थाय दिष्टः रत्नकरण्डकः ।।
नाया गया है। यह स्पष्ट है। और उसे अपना कर प्रन्थ४ इनका समय पं. महेन्द्रकुमार जीने ई०६८ से १०६५ कारने अपने ग्रन्थका उसी प्रकार बना लिया है जिस दिया है। न्यायकुमुद द्वि० भागकी प्रस्ता. विशेषकेलिये देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० १२७ से १३२