SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२ अनेकान्त [ वर्ष ६ प्रकार प्रकलदेवने प्राप्तमीमांसाकी 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' यह बतलाया है कि समन्तभद्रने प्राप्तमीमांसा कारिका' कारिकाको अपनाकर अपने न्याय विनिश्चयमें कारिका ४१५३ में वीतरागमुनि (केवली)में सुख-दुःखकी वेदना स्वीकार के रूपमें ग्रन्थका अंग बना लिया है। न्यायावतारके टीका- की है। इसपर मैं कहना चाहता हूँ कि 'दोषके स्वरूप सम्बन्ध कार सिद्धर्षिने, जिनका समय वीं शताब्दी है, इस पथ में रत्नकरण्डकार और प्राप्तमीमांसाकारका अभिप्राय भिन्न की टीका भी की है, इससे रत्नकरण्डकी सत्ता निश्चय ही नहीं है-एक ही है, और न स्वामी समन्तभदने केवली १ वीं और वीं शताब्दीये पूर्व पहुँच जाती है। भगवान में सुख-दुःखकी वेदना स्वीकार की है । इसका -ईमाकी पांचवीं (विक्रमकी छठी ) शताब्दीके खुलासा निम्न प्रकार है:-- विद्वान् पा० पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धि में रनकरण्ड-श्रावका रस्नकरण्ड-श्रावकाचारमें प्राप्तके लक्षणमें एक खास चारके कितने ही पद, वाक्यों और विचारोंका शब्दशः और विशेषण 'उच्छिन्नदोष' दिया गया है और उसके द्वारा अर्थश: अनुसरण किया है जिसका मुख्तार श्री पं. जुगलकिशोर प्राप्तको दोषरहित बतलाया गया है। मागे दोषका स्वरूप जीने अपने 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक समझानेके लिये निम्न श्लोक रचा गया हैलेखमें अच्छा प्रदर्शन किया है। यहां उसके दो नमूने दिये जाते हैं : क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मया:। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीयते ॥६॥ (क) तिर्यकक्लेशवाणिज्यहिसारम्भप्रलम्भनादीनाम । इस श्लोकमें प्रायः उसी प्रकार क्षुधादि दोषोंको गिना कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मतव्यः पाप उपदेशः ।। -रत्नक०७६ कर दोपका स्वरूप समझाया गया है जिस प्रकार कुम्न'तिर्यकक्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिपुपाप- कुन्दाचार्यने नियमसारकी गाथा' नं०६ में वर्णित किया है। संयुक्त वचनं पपोदेशः।- सवार्थ०७-२१ अब देखना यह है कि प्राप्तमीमांसाकारको भी ये चुधादि (ख) अभिसंधिकृताविरतिः"व्रतं भवति'-रत्नक०८६ दोष अभिमत हैं या नहीं। इसके लिये हमें प्राप्तमीमांसा. 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः।-सर्वार्थसि०७-१ कारकी दूसरी कृतियोंका भी सूक्ष्म समीक्षण करना चाहिये तभी हम प्राप्तमीमांसाकारके पूरे और ठीक अभिप्रायको ऐसी हालत में छठी शताब्दीसे पूर्व के रचित रत्नकरण्ड समझ सकेंगे। यह प्रसन्नताकी बात है कि प्रो. सा. ने के कर्ता ( समन्तभद्र)११ वीं शताब्दीक उत्तरवर्ती रत्न स्वयंभू-स्तोत्र और युक्त्यनुशासनको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी मालाकार शिवकोटिके गुरु कदापि नहीं हो सकते । समन्तभद्रकी ही कृतियाँ स्वीकार किया है। स्वयंभू स्तोत्रमें मत: उपर्युक्त विवेचनसे जहां यह स्पष्ट है कि रन स्वामी समन्तभदने 'दोष' का स्वरूप वही समझाया है जो करयडके कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटिके साक्षात गुरु नहीं रत्नकरणहमें दिया है। यथा-- हैं वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रत्नकरण्ड-श्रावकाचार शुदादिदुश्वप्रतिकारत: स्थितिनचेन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यतः सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपाद (४५० A. D) से ततो गुणो नास्ति च देह देहिनोरितीदमित्थं भगवान् पूर्वकी कृति है। व्यजिज्ञपत् ॥ -स्वयं०१८ अब मैं प्रो. सा.के उस मतपर भी विचार करता हैं जिसमें उन्होंने दोषके स्वरूपको लेकर रत्नकरण्ड-श्रावका १ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । चारकार और प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायोंको भिन्न वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्या निमित्ततः॥ बतलाया है और कहा है कि "रत्नकरण्ड में जो दोषका २ डा० ए०एन० उपाध्येने प्रवचनमारकी भूमिकामें श्रा० स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्राया- कुन्दकुन्दका समय ई० की पहिली शताब्दी दिया है। नुसार हो ही नहीं सकता।" इसका प्राधार भी आपने ३ छहतराहभीररोसो रागो मोहो चिना जग जामिरचू । २ देखो, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११। ___स्वेदं खेद मदो रइ विरिइयणिद्दा जगुन्वेगो॥
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy