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________________ अनेकान्त [वर्ष ६ कितने प्रबल तथा पुष्ट प्रमाण है, परन्तु वर्तमान सरकारी सामायिक प्रोपधोपवासोतिथिसु पूजनम् । मार्दिनसके कारण पत्रोंका कलेवर इतना कृश हो गया है मारणान्तिकसल्लेन इत्येवं तश्चतुष्टयम् ॥ कि उसमें अधिक लम्बे लेखोंके लिये स्थान नहीं रहा और -रत्नमाला १७, १८ इस लिये मुझे अपने उक्त विचारको छोड़ना पड़ा, फिर (२) रत्नकरण्डमें उत्कृष्ट श्रावकके लिये मुनियोंके भी मैं यहाँ इतना जरूर प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो. निवासस्थान वनमें जाकर व्रतोंको ग्रहण करनेका विधान साहबने अपने निवन्धमें उक्त प्रमाणोंका कोई खण्डन नहीं किया गया है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि दि० मुनि किया-वे उन्हें मानकर ही आगे चले हैं; जैसा कि "उन उस लमय बनमें ही रहा करते थे। जबकि रत्नमाला सबके होते हुए भी मेरा अब यह दृढ़ मत हो गया है" मुनियोंके लिये वनमें रहना मना किया गया है और जिनमंदिर इन शब्दोंमे प्रकट है। जान पड़ता है मुख्तार साहबने तथा ग्रामादिमें ही रहनेका स्पष्ट आदेश दिया गया है। यथा-- अपने प्रमाणोंको प्रस्तुत कर देनेके बाद जो यह लिखा था गृहतो मुनिवमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । कि "ग्रन्थ (रत्नकरण्ड श्रा०) भरमें ऐसा कोई कथन मी भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ नहीं है जो प्राचार्य महोदयके दूसरे किसी अन्यके विरुद्ध पड़ता हो" इसे लेकर ही प्रो. साहवने 'दोष के स्वरूपमें -रत्नकरएड०१७ विरोध प्रदर्शनका कुछ यत्न किया है, जो ठीक नहीं हैं और कलौ काले वने वासो वज्यते मुनिमत्तमैः। जिसका स्पष्टीकरण आगे चल कर किया जायगा। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादपु विशेषतः॥ यहाँ सबसे पहले रत्नमाजाके सम्बन्ध विचार कर -रत्नमाला २२ जेना उचित जान पड़ता है। यह रनमाला रत्नकरगड इन बातांस मालूम होता है कि रत्नमाल। रत्नकरण्डश्रावका श्रावकाचार-निर्माताके शिष्यकी तो कृति मालूम नहीं होती, चारके कर्ताके शिष्यकीकृति कहलाने योग्य नहीं है। साथ है। कपों क दोनों ही कृतियोंमें शताब्दियोंका अन्तराल यह भी मालूम होता है कि रनमालाकी रचना उस समय जान पड़ता है. जिपसे दोनोंके कर्ताओंमें साक्षाद् गुरु-शिष्य. हुई है जब मुनियों में काफी शिथिलाचार भागया था और सम्बन्ध अत्यन्त दुर्घट ही नहीं किन्तु असंभव है। साथ इसीसे पं.प्राशाधरजी जैसे विद्वानोंको पंडित भ्रष्टचारित्रैः होमका साहित्य बहुत ही घटिया तथा प्रक्रम है । इतना वठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ ही नहीं, इसमें रनकरण्ड-श्रावकाचारसे कितने हो ऐसे कहना पड़ा। पर रत्नकरण्डरसे रत्नकरण्डकारके समय में सैद्धान्तिक मतभेद भी पाये जाते हैं जो प्राय: साक्षात् गुरु ऐसे किसी भी तरहके शिथिलाचारकी प्रवृतिका संकेत नहीं और शिष्यके बीच में संभव प्रतीत नहीं होते। नमूनेके मिलता और इस लिये वह रत्नमालास बहुत प्राचीन तौरपर यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं: रचना है । रत्नमालाका सूचम अध्ययन करनेसे यह भी ज्ञात नकायहमें शिक्षा-बोंके चार भेद बतलाये हैं होता कि यह यशस्तिलकचम्पके कती सोमदेवसे. जिन्हों देशावकाशिक २ सामायिक ३ प्रोषधोपवास और ने अपने यशस्तिलककी समाप्ति शकसं. ८. (वि०१० ४ वैयावृत्य । लेकिन रत्नमालामें देशावकाशिकको छोड़ १६) में की है और इस तरह जो विकीवीं शताब्दी दिया गया है-यहां तक कि उसको किसी भी प्रतमें के विद्वान हैं, बहुत बारकी रचना है, क्योंकि रत्नमालामें परिगणित नहीं किया-और मारणान्तिक सरलेखनाको श्रा.सोमवेवका आधार है और जिनमंदिर के लिये गाय, शिक्षा-बोंमें गिनाया है। यथा देशावकाशिकं वा सामयिक प्रोपोग्यासो वा। १ सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । वैयावृत्त्यं शिक्षा-प्रतानि चत्वारि शिष्टानि ।। यत्र सभ्यवहानिर्न यत्र न व्रत दृषणम् ।। -रत्नकरण्ड०११ -यशस्तिलक
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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