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________________ अनेकान्त - [वर्ष ६ पकड़ा दिये गये। कि एक बार मेरे सामने पाकर डेयरीका निरीक्षण क्षणभर माधव इस अद्भुत व्यापार और आश्च- कर लीजिये। यजनक नियुक्तिकार चकित होकर रह गया। किन्तु इस विशेष आग्रहको मोहन यह कर कि तुम जैसे कुशल पण्डितको पाकर भी डेयरीको यदि मेरी __ माधवको डेयरीका कार्य सम्भाले लगभग दो आवश्यकता रहा ता इसस विशेष मर दुःखका कारण वर्ष होगए। उसने अपनो योग्यताका अच्छा परिचय ओर क्या हो सकता है, टाल देता। दिया। उसके रहते डेयरीके सभी काम उन्नत होगए । माधवसे मोहनकी कृशका स्नेहमय पशुओंके स्वास्थ्यका उसने विशेष प्रबन्ध किया। धन्यवाद देनेका अवकाश ज्यों २ दूर होता रहा, विदेशी वैज्ञानिक उपायोंसे दूधके विभिन्न लाभप्रद त्यों २ उसकी उद्विग्नता बढ़ती ही रही। अन्त.. एक मिश्रण निर्माणकर उसने अाशासे अधिक मुनाफा दिन ऐसा बागया कि वह उस आकांक्षाको किसी तरह कर दिखाया था-उसके नम्र व्यवहारसे सभी कर्म भी दबा न सका और उसी आवेशमें उसने कुछ सोच चारी प्रसन्न थे और पशु जिनपर उसे अगाध ममता कर मैनेजरके पदसे त्यागपत्र दे दिया। माधवने सोचा थी, उससे स्नेह रखने लगे थे। था कि त्यागपत्रके पाते ही मोइन दौड़ आयेगा। किन्तु यह देखकर उसके दुम्बकी सीमा न रही कि त्यागपत्र दोनों समय वह स्वयं अपने सामने उनके चारे स्वीकृत होगया और मोहनसे मिलने की भविष्य में और दानेकी देखभाल किया करता था । वह भी आशा भी न रही। अत्यन्त प्रसन्न था, किन्तु इतने लंबे समयमें भी हव सज्जन जिन्होंने उसके आर्थिक संकटका निराकरण कर आज उसे डेयरी छोड़ते हुए कठोर मानसिक असीम उदारताका परिचय दिया था, फिर कभी उम पीड़ा अनुभव हुई। नीचेके कर्मचारी और डेयरीके के पास न आये और न उसे बुलाया । मोहनने मूक पशुओंमें उसका स्नेहपाश बिखर पड़ा था। उस कितनी ही बार उनसे मिलनेकी चेष्टायें कीं; किन्तु को समेटकर चले आना उसे दुःख जनक ही नहीं किन्तु अपमान-जनक भी प्रतीत होने लगा । क्या उस सब विफल ! के दो वर्षके कठिन परिश्रमका यही मूल्य था ? एक. भारी उपकारसे उमकी आत्मा दबी हुई थी। बार क्या यह भी जाननेकी अभिलाषा निर्मोही मोहन मोहनसे साक्षात कर धन्यवाद देनेकी अभिलाषा इसी के अन्तःकरण में नहीं उपजी कि इस त्यागपत्रका मूल से दिन २ बढ़ी जा रही थी। मोहनकी इस उपक्षाका कारण क्या है? उसकी समझमें कोई अर्थ न लगता था। यह आकांक्षा कमी २इतनी तीव्रतासे जाग उठती थी कि उसे अपने गाडीका समय निकट आने लगा, किन्तु मोहनके इस सम्माननीय पदसे घृणा होने लगती थी । वह आनेकी कोई पाशा न रही। माधव निराशचित्तसे मोहनकी इस विरक्तिका अथे कभी २ असीम उदारता घर चला गया। सप्ताह पर सप्ताह बीतने लगे। किन्तु, और कभी अकारण निस्पृहता लगानेके लिए वाध्य मोहनसे मिलनेकी अभिलाषा अभी भी बनी हुई थी। हो जाया करता था। माधबके सभी विचारात्मक प्रश्न डेयरीका ध्यान रह रहकर उसे सताने लगा। उन मूक जो डेयरीसे सम्बन्ध रखते थे, पत्रद्वारा तय हो जाते पशुओंकी स्नेह स्मृतियाँ अन्तरके प्रदेशसे उछल कर थे, कितनी बार जब उसने आग्रह पूर्वक लिस्बा कि कभी २ उसे बेचैन कर देती थीं। मालिकको अपने कारोबारको एकदम किसी अनजान मोहनकी डेयरीमें रहकर उसने बागिज्यकी के हाथों में छोड़कर निश्चिन्त होजाना कभी भयानक महिमा जान ली थी। उस व्यवसायमें उसका मन भी विपत्ति ला देता है, अतः मेरा साग्रह अनुरोध है खूब लगा था। इमलिये शिक्षाप्रदत्त ज्ञानकी शक्तियाँ
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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