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________________ किरण ३] माधव मोहन उत्पातकी बात मूझनी है। संकटोंकी सतत चिन्तामें निरत रहनेका अवसर मिला -क्या अच्छा नहीं हुआ? हो उन्हें माधवकी बेबसीका परिचय होगा। घरवालों नहीं ! इम मत्य और सटोक्कि पर अपराधीकी की दृष्टिमें वह आलसी था और अकर्मण्य ! किन्तु नाई माधवने कहा-क्या कहूँ बहूरानी बहुत सोचता सचमुच ऐसा न था। लीटर (Leader) के मुखपृष्ठ हूँ तुम्हारी ही तरह मुँह फुलाकर सुदूर एकान्तमें जा पर छपी हुई कमसे कम वेतनकी वान्ट (want) पर बंटू' पर उममें भी तो सफल नहीं होता। वह अविलम्ब जानेका तैयार रहता था किन्तु दुर्भाग्य -तुम जैसे आलसियोंसे क्या कुछ हो सकेगा, को कुछ सुहाता न था ! इन दिनों कितने घरों में बढ़ी वह रानी ने कहा बड़ी आशायें हदय में भरकर उसे जाना पड़ा था, -इसमें भी तो रानी, तुम्ही बाधक हो । तुम्हें और न जान कितने धनिकोंके सन्मुख याश्चाका अकदेखकर हो तो भयके मारे मेरा सारामयम,मारा मान कण नीरव रोदन है. यमें भर उपस्थित होना पड़ा, अतीत बनकर आँखोंसे दूर हो जाता है और वर्तमान । कितने दफ्तरोंमें, कितनी अदालतों में, कितने विद्या"बस आगे नहीं कहता-नाराज हो जाओगी। लयों में अपनी दरिद्र परिस्थितिका वर्णन करते २ उस जिमने दृमरोंके सन्मुख हाथ पमारकर भी, अपना की आँग्बासे पानी बह चला, किन्तु कहीं भी एक कुर्सी गौरव अक्षुण्गा समझा हो, या जिस पढ़ लिखकर भी भर जगह उसे शान्तिसे बैठनेक 'लए नसीब नहीं हई। 'अपने आत्म सम्मानका तथा अपने माता पिताकी अभावका अशंछनीय दया भाव सब जगह ही शिष्ट दीनदशाका ध्यान न आता हो उसे दसगेकी नाराजगी निधि के माथ उपस्थित होता रहा। की इतनी चिन्ता? घोर चिन्ता और आहार विहारकी अव्यवस्थाने -बहू रानी ! मामला वेढब है, क्या अम्माजीने उमके स्वास्थ्य को और भी नावाँडोल कर दिया था। कुछ बुरा भला कहा है? अब विशेष प्रतीक्षा या मन्धान करने की शक्ति उसमें -यदि कहा हो तो क्या तुम उसका प्रतिकारकरोगे? शेष न रह गयी थी-मोहनकी डेयरीका नाम उससे र्याद कर सका छिपा हुआ न था-उम उद्योगकी सफलता पर 'लीडर' -तो मनोभिलापित वरदान! के कालमके कालम रंग जारहे थे । अन्ततः हारकर -यदि न कर सका! उस डेयरी में ही क्लकी करने में ही उसने निश्चय किया -तो तुम्हारा यह घर बार छोड़कर चली जाऊँगी। और दूसरे ही दिन वह गोरखपुर को रवाना हो गया। --कहाँ पर। स्टेशन पर ही कर्मचारीगण उपस्थित थे । एक अवैतजपिर तुम्हारे जैसे अकर्मण्योंका वासन होगा- निक प्रधान कर्मचारीने यह कहते हुए उसे डेयरीका कार्यकहकर बहू रानीको अपनी सीमा उल्लंघन करनेका भारसौप दिया कि यद्यपि आपकी दरख्वास्त एक क्लर्कध्यान हो पाया। पदके लिये प्राप्त हुई थी, किन्तु इयरीने यही उचित माधव ढीठ बहूका मुख देखने लगा-किन्तु उम ममझा कि उस पदपर रहकर आप डेयरीकी उन्नतिमें कटु वचनमें जो सत्यता थी वह उसके सामने आकर विशेष सहाय्य न दे सकेंगे। अतः इस शाखाका मारा कहने लगी बहू जो कुछ कह रही है वह ठीक है प्रबन्ध आपके सुपुढे किया जाता है । आजसे आप तुमने इतना जानकर भी माता पिता तथा स्त्रीकी इसके प्रधान मैनेजर नियुक्त हुए । इस कार्यको आवश्यकताओंको न समझा। उत्तरोत्तर उन्नत करना ही आपकाध्येय होना चाहिये। वेतन यद्यपि बहुत कम है तथापि इसे आप स्वीकार जिन्हें कभी ग्रहस्वामिनीकी प्रसन्नतासे वास्ता पड़ा कीजिये-पेशगी दे देनेकी हमारी विशेष प्रथा है यह हो और साथ ही साथ धनहीन परिवारके आर्थिक कहकर एक सौ दस रुपये के नोट माधवके हाथमें
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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