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________________ किरण ३] माधव मोहन ६५ अपना सदुपयोग कर डेयरीके संग्राममें विजयोल्लाससे है। तुम्हें क्या मालूम, जिस समय तुम माहवारी चमत्कृत हो उठी थीं। परन्तु, दुर्भाग्यने वहाँ भी साथ हिसाब, चिट्टियाँ और नये २ उपायोंकी स्वीकृति लेने न छोड़ा। मेरे पास आकर अम्ने मधुर शब्दोंमें डेयरीके भविअब बहूरानीक सद् परामर्षसे माधवने भी थोड़ी व्यकी कल्पनाके चित्र खींचा करते थे, मेरा हृदय मी पूजी लेकर इसी व्यवसायको अपनानेकी बात तुम्हारे चरणों में लोटनेके लिये कितना व्यग्र होजाता सोचली थी। था किन्तु, फिर भी अपनेको सावधान कर आपकी दोपहरका समय था । भोजनके उपरान्त भावी बातें सुनता तथा आपके मधुर दर्शनसे अनन्त संतुष्टी जीवनकी बातोंको लेकर बहरानी और माधव दोनों प्राप्त करता रहा। अस्तु ! ही व्यस्त होरहे थे।-ठीक उसी समय एक अनजान आदमीने एक लम्बा लिफाफा सामने पटक कर दोनों तुम्हारे महबासस (जो यद्यपि तुम पर प्रगट नहीं को चकित कर दिया। था) यदि मैं भूल नहीं करता तो मैं यह कहनेकी आदमी लौट गया। माधवकी आँखें उसपर पड़ धृष्टता करता हूँ कि डेयरी का कार्यक्रम तुम्हें पसन्द गई। चेहरेपर कुछ अनजान भावोंने आकर ग्नेह है और उमसे तुम्हें अधिक स्नेह भी है। अतः गांरमिश्रित दीनताके भाव अभिव्यक्त कर दिये । शरीर ग्वपुरवाली डेयरी पिताजीके आग्रहसे तुम्हारे निरीक्षण हप और कृपाके भारसे शिथिल होने लगा । बहू रानी में दस वर्षके लिये दे दी गई है, जिसमें से प्रतिवर्ष मौन थी, किन्तु अब उमसे कौतुहल दबाया न गया दो आने रुपया हमें देकर बाकी मुनाफा ले लेनेके उसने माधवके आगेसे पत्र खींच लिया। उसमें लिखा तुम पूर्णरूपसे अधिकारी हो। यह कार्यवाही रजिष्ट्री था गोरखपुर करा दी गई है और उसकी नकल तुम्हारे पास भेजी परम स्नेहास्पद माधव, नमस्कार ! है। अब तुम्हें वापिस आना ही होगा, तुम्हारी इच्छा यकायक तुम्हारा त्यागपत्र पाकर मैं हर्पस उछल का अधिकार भी पहिले ही छीन लिया गया है। पड़ा । तुम जैसे बहुश्रुत विद्वानको नुच्छ वेतनपर रख शायद तुम कभी न आते। मैं भी तो तुम्हारे बिना कर मुझसे एक अक्षम्य अपराध होगया था. जिसका रहन सकूँगा । सबको यथायोग्य। निराकरण तुमने स्वयं ही कर दिया। मैं तुम्हाग तुम्हारा महपाठी--मोहन । प्राच्य माध्यायी हूँ। तुममें सदामे मेरी अगाध श्रद्धा रही है। मालिक के रूपमें तुम्हारे सन्मुख उपस्थित माधव अभी भी उसी तरह बैठा था । किन्तु, होने में मुझे महान संकोच होता था । किन्तु, फिर बहु रानी डयरी देखनेकी उत्सुकतासे उसे हिला डुला भी निलेज होकर व्यापारी होनेके कारण तुम्हारे जैसे कर कह रही थी-स्नेहका यह मधुर श्रास्वादन अब सहृदय सच्चे मित्रकी कार्यप्रणाली जांचनेके लिये की वार एकाकी होकर न भोग सकोगे--उममें से मैं अवैतनिक मन्त्रीके रूपमें तुम्हारे पास ही रहना पड़ा बहुत भाग जबरदस्ती छीन लूंगी। मुफ्त नमूना माँगनेवालोंके प्रति अनेक सज्जन 'अनेकान्त'का मुफ्त नमूना भेजनेके लिये व्यर्थ पत्र व्यवहार करते हैं, जिससे उनको और कार्यालय दोनोंको ही व्यर्थका पोस्टेज और समय खराब करना पड़ता है। उनसे प्रार्थना है कि अनेकान्तकी प्राय: उतनी ही प्रतियाँ छपाई जाती हैं जितने ग्राहक होते हैं अतः नमूना भेजना कठिन है। पूरे वर्षका चन्दा ४) रुपये हैं। अजैन संस्थाओं और फ्री भिजवाने बालों से ३॥) रु. हैं वर्ष अगस्तसे आरम्भ और जौलाई तक समाप्त होता है। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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