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अनेकान्त
[वर्ष ६
फजलो हुनर बड़ोंके कुछ तुममें हो तो जाने । प्रकारसे उन्होंने अपने जीवनको श्रोत-प्रोत कर दिया है। गर यह नहीं तो बाबा ये सब कहानियां है। अन्समें ऊँचे साहस और स्वरसे 'इवि रस्मि नाम' अर्थात्
बड़ोंके गुणगानके साथ अात्मनिर्माण-पंडितनीकी मेरा ही नाम पहली हवि है, यह संकल्प करके . उन्होंने यह पांचवीं विशेषता है।
वीरसेवामन्दिरके लिये अपनी मर्वमम्पत्ति और अपना भमी
जीवन भी समर्पित कर डाला है। प्राशा है उनके इस प्रायः पंडित लोग जिज्ञासुके भावको न देखकर उनके अनुकरणीय गागसे जैनसाहित्यका कल्पवृक्ष नवीन स्फूति
शब्दोंकी खामीका दुरुपयोग करके उन्हें तोड़ मरोड़कर के साथ पल्लवित होगा। उसे चुप करना ही जानते हैं। इसी बातकी एक कविने
जैन साहित्यने भारतीय ज्ञान-साधनाके अनमोल रत्नो कितनी मीठी-शिकायत की है
की रक्षा की है। भारतीय संस्कृतिक इतिहमके लिये जैन "बाईबाकी हुजतोसे कायल तो होगये हम।
वाङ्मय बड़ी मूल्यवान सामग्री भरी पड़ी है। यह सत्य कोई जवाब शाकी पर उनसे बन न पाया ॥"
अब दिनप्रतिदिन प्रत्यक्ष होता जा रहा है। बौद्धोका महान् परंत पं० जुगलकिशोरजीमें यह बात नहीं है। उनके पाली और संस्कृत साहित्य आज विश्वविदित है और उसके लेखोंमें हदय है, उनमें चित्त-प्रन्थि सुलझानेकी पूरी सामग्री द्वारा साहित्य संस्कृतिपर विलक्षण प्रकाश पड़ा है । जैन यतीवेजिमसको खामोश नहीं करते, तृप्त करनेका माहित्य प्रकाशनके क्षेत्रमें कुछ पिछड़ा रहा, पर उसकी यल करते हैं। प्रमाण पर प्रमाण, विवेचनापर विवेचना अन्त:साक्षी भी बौद्धसाहित्यसे कुछ कम महत्वपूर्ण ज्ञात देकर उसे इतनी विचार सामग्री दे देते हैं कि उसकी भूख नहीं होती। हर्ष है कि अब देश के कई स्थानोंसे जनसाहिमर जाये । यह पंडितजीकी छठी विशेषता है।
त्यके अमूल्य ग्रन्थोंके प्रकाशनका एकसाथ प्रयत्न होरहा है।
श्री जुगलकिशोरजीके कार्यका इस महान यज्ञमें कृतज्ञताके दार्शनिक और अनुसंधाता लोगोंका स्वभाव प्रायः साय सदा स्मरण किया जायगा । रूस्या होता है और वे सदा अपनी ही धुनमें मस्त रहते हैं, पणितजी अपने साथियोंके लिये सदा अत्यन्त सहृदय
भावी पीढ़ीक पथप्रदर्शक पण्डितजीके साथ मेग अभी तक साक्षात् परिचय नहीं श्री कामताप्रसाद जैन एम० आर०ए०एस०है, पर उनके पत्रों में बराबर मुझे अपने सगे सम्बन्धियों-सी सहारनपुर के भाड्याने श्री जुगलकिशोर मुख्तार साहब प्रात्मीयता मिलती रही है। जब मैं उनकी चिट्ठी पढ़ता हूँ, का मम्मान उत्सव नियोनित करके निस्सन्देह एक युगप्रव- । तो मुझे अनुभव होता है कि वे मेरे पास ही बैठे, प्रेमसे तक कार्यका श्रीगणेश किया है। जैनियोंमें इम श्रोरसे निरी बातें कर रहें हैं।
उदामीनता थी। जो जाति अपने साहित्यिको-सच्चे उपविद्वान होकर भी सहृदय, यह पण्डितजीकी सातवीं कारियोंका श्राभार नहीं जनाती उसका भविष्य शायद ही विशेषता है।
कभी चमकता हो! देर-सबेरस नियोने इस सत्यको नीहा
है यह संतोषकी बात है। सहारनपुर जैनियोंका केन्द्र है। वि रस्मि, नाम
उसपर ला. प्रद्युम्नकुमारजी सदृश स्थितिपालक श्रीमान्की डा. वासुदेवशरण अग्रवाल एम०ए० डी. लिट. . अध्यक्षतामें इस समारोहका सम्पन्न होना इस बातका प्रमाण
क्यूरेटर, प्रान्तीय म्यूजियम लखनऊ है कि जैनियों में नव जागतिकी लार गहरी पैठी है-उस भी जुगलकिशोरजीके एकनिष्ठ साहित्य साधनपर मैं ने कट्टरताको मेटकर विवेकको भगत कर दिया है। उन्हें अपना विनम्र अभिनन्दन भेजता हूँ । जनसाहित्यक... परीक्षा प्रधानता ही मनुष्य जीवनको उन्नत बनाती है जो लिये उन्होने महान् त्याग किया है। इस कार्यके साथ एक भी इस बातको जान और मान लेता है वह भटकता नहीं