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________________ अनेकान्त . [बर्ष ६ 'अनेकान्त' या उनके साहित्यके पढ़ने का अवसर मिलता के पत्रोंमें उनकी नर्चा तथा रचना प्राय: देखता रहा । उन रहा है, उनकी यह बालोचनात्मक पद्धतिसे परिचित रहे हैं। की रचनात्रोंमें विद्वत्ताकी जो छाप है उससे मैं बहुत कुछ श्रीमुक्तारजी उचकोटिके विद्वान है-पटुकवि, सुन्दसमा- परिचित हूँ। मैं परमात्मासे यही प्रार्थना करता हूँ कि वे लोचक, और प्रवीण सम्पादक । वीरसेवामन्दिरकी स्थापना शतायु होकर जैन-साहित्यकी पूर्ववत् लाध्य सेवा करते हुए के लिये उन्होंने जो त्याग किया , और उसकी जो अार्थिक हिन्दीका गौरव एवं वैभव बढ़ाते रहें। अर्चना की है, वह हमारे लिये एक ज्वलंत उदाहरण है, जैन साहित्य संबंधी अप्रकाशित अप्राप्य ग्रन्थोकी सूची भविष्यके निर्माता तैयार करके भारतीय साहित्यको उन्होंने ऋणी बना दिया है। भारतीय संस्कृति पर जैन संस्कारोंकी गहरी छाप है, श्री बृहस्पतिजी, पूर्व आचार्य गुरुकुल वृन्दावन और भारतीय इतिहासका अनुशीलन जैन साहित्यकी उपेक्षा भारतीय पुरातत्त्वके धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नहीं कर सकता। और इस समयका जैन साहित्य मुख्तार इतिहासमें जैनधर्मका एक महत्वपूर्ण स्थान है और विश्व साहबकी सेवायोका सदा आभारी रहेगा । उनकी कृतियां की संस्कृतिके इतिहास एवं भविष्य निर्माण में भारत अपना तो निस्सन्देह अमर है ही। एक विशेष स्थान रखता रहा है और आशा है कि भविष्य में भी रखने वाला है। अतः जैन साहित्य सम्बन्धी जितनी युग-संस्थापक भी शोध-खोज हो वह थोड़ी है। ऐसे बीहड़, और कभी २ प्रो० हीरालाल जैन, एम०ए० एलएम०पी० फलाशा रहित सिद्ध होने वाले शोधारण्यमें अपना सर्वस्व खपादेने वाले विद्वद्रल श्री मुख्तार महोदयके लिये कृपया मुख्नारजी इस युगके उन थोड़ेसे महारथियों में से हैं मेरी श्रद्धाञ्जलि स्वीकार कीजिये, शन्द-ब्रह्मके अधिष्ठाता जिन्होंने महान् परिश्रम और विद्वत्तापूर्वक जैनसाहित्यकी परमकारुणिक भगवान ऐसे सरस्वती-समाधकोंको दीर्घजीवी खोज, उसके इतिहास और विवेकपूर्वक संशोधनका वर्तमान और सफल करें। युग स्थापित किया है। ऐसे कार्य में पथप्रदर्शकके लिये बो कष्ट होते हैं वे भी मुख्तारजीने खूब सहे हैं। उनकी आदर्श पुरुष भी इस कार्य में ऐसी पक्की रहीहै कि जबसे उन्होने इस श्री अजितकुमार जैन, शास्त्री ओर ध्यान दिया तबसे वे उत्तरोत्तर उस दिशामें बढ़ते ही श्रीमान् पं. गुगलकिशोरजी श्री १००८ भगवान महागये। पहले जैनहितैषीका और अब अनेकान्तका सम्पादन वीरके दिव्य शासनकी एक गणनीय विभूति है। वर्तमान कर वे जनसाहित्यकी अनुपम सेवा कर रहे हैं । यह स्वयं युगके एक दृढ अध्यवसायी, अनुपम साहित्य-सेवी है। उन जैनममाजके सौभाग्यकी बात है कि उसने अपने सुयोग्य का पुरातत्व-अन्वेषण अद्वितीय। अनेक पुरातन ऋषियों साहिस्थिकोंका सम्मान करना प्रारंभ कर दिया है । इस के समय निर्धारणमें जो उन्होंने सफल परिश्रम किया है प्रतिसे मुके जैन समाजका भविष्य उज्ज्वल दीखता है। वा अमूल्य है। स्वामी समन्तभद्रके तो वेभसाधारण भक्त प्रतीत होते पुराने साहित्यिक है संभव है इसी कारण उन्होंने वीरशामनके चमकीले रत्न श्री शिवपूजन सहायजी श्री समन्तभद्राचार्यके विषय में जो अन्वेषण किया है वह मैं भीमान् परमादरम्पीय मुख्तार साहबको बहुत दिनोंसे असाधारण तथा अटल है। अनेक विद्वानोंने उनके निर्धारित जानता हूँ पर कभी उनके दर्शनका मौभाग्य पान न हुआ। समयको हिलानेका घोर यत्न किया किन्तु वह आज तक मेरे स्वर्गीय मित्रपारा निवासी कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन उनको जहाँका तहाँ श्रचल रहा। पण्डित्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। यह यान आज श्रीमान् पं. जुगलकिशोरजी जब तक किसी भी विषय से पचीस-तीस गल पहलेकी है। उसके बाद भी जैनसमाज का सूक्ष्म तौरसे चतुर्मुखी अध्ययन नहीं कर लेते तब तक
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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